चाचा नहीं, चाणक्य की क्या है सियासी वारिस की रणनीति

नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के बतौर तेजस्वी यादव को चुन लिया है। उनकी पूरी रणनीति चाचा के रूप में नहीं, चाणक्य जैसा है।

कुमार अनिल

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर से नेशनल मीडिया में चर्चा में हैं। 2025 में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ने और खुद राष्ट्रीय राजनीति में जाने के उनके फैसले पर बहस हो रही है। क्या नीतीश कुमार का यह निर्णय चाचा के रूप लिया गया है या चाणक्य के रूप किया गया फैसला है?

अधिकतर लोग मान रहे हैं कि नीतीश कुमार का यह निर्णय भावनात्मक निर्णय है। एक चाचा के बतौर लिया गया फैसला है। लेकिन यह सच नहीं है। नीतीश कुमार परिपक्व राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने बिहार और देश की राजनीति की नब्ज को पकड़ कर, समझ कर, पूरा जोड़-घटाव करके निर्णय लिया है।

नीतीश कुमार समझ गए हैं कि आज की भाजपा न तो 2005 वाली भाजपा है, जब वह अछूत दल मानी जाती थी और न ही राजद 2015 वाला राजद है, जब तेजस्वी यादव राजनीति में नए थे और उन्हें मुख्यमंत्री का फेस घोषित करने को तैयार हो गए थे। 2005 से लेकर 2015 तक भाजपा की मजबूरी थे नीतीश कुमार। नीतीश के पास ज्यादा विधायक, ज्यादा वोट हुआ करता था। आज स्थिति बदल चुकी है। आज भाजपा के पास सवर्ण के साथ दलित और अतिपिछड़ों का एक हिस्सा भी है और वह राज्य में दूसरी बड़ी पार्टी है। उसके पास नरेंद्र मोदी का चेहरा है। अब भाजपा के लिए नीतीश कुमार मजबूरी नहीं रहे। अगर नीतीश कुमार एमडीए में ही रहते, तो भी 2025 में भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री का फेस नहीं बनाती।

इधर महागठबंधन में पिछली बार 2020 में तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के फेस थे और एनडीए को कड़ी टक्कर दी। अब तेजस्वी यादव 2015 वाले तेजस्वी नहीं हैं, अब उनकी बिहार में पहचान बन गई है। स्वाभाविक रूप से वे 2025 में भी मुख्यमंत्री का फेस होंगे।

ऐसी स्थिति में नीतीश ने समझ लिया कि उनकी पारी खत्म हो रही है। नालंदा में उन्होंने कहा भी कि उन्हें जितना काम करना था किया, अब मेरे काम को तेजस्वी आगे बढ़ाएंगे। 2025 में नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के आसार अब बहुत कम हैं। इसके विपरीत राष्ट्रीय राजनीति में उनके लिए स्पेस है। बिहार चुनाव में 2015 में जिस स्थिति में राजद था, 2022 में राष्ट्रीय राजनीति में उसी स्थिति में है। आज राजद के पास कोई राष्ट्रीय नेता नहीं है। लालू प्रसाद हैं, लेकिन मुकदमों के कारण वे संसदीय राजनीति का नेतृत्व नहीं कर सकते। नीतीश कुमार अगर जदयू का विलय राजद में कर देते हैं, तो वे ही राष्ट्रीय नेता होंगे। इस हैसियत से राष्ट्रीय राजनीति में उनकी स्थिति मजबूत हो जाएगी। तब शायद केसीआर से लेकर ममता बनर्जी तक के लिए उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में नेता मानना आसान होगा।

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By Editor


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