पापा की विरासत बचानी है तो भगवा चोला उतार फेकें Chirag
Chirag Paswan जीवन के कठिनतम दौर में हैं. Irshadul Haque बता रहे हैं कि भाजपा के भगवा चोले के मोह से निकल कर ही वह पापा की विरासत बचा पायेंगे.
Chirag Paswan को अपना सियासी भविष्य बचाने के लिए क्या करना चाहिए? यह सवाल न सिर्फ आम लोगों के जहन में कौंध रहा है बल्कि खुद चिराग पासवान भी इस मुद्दे पर गौर कर रहे होंगे. एक क्षेत्रीय दल और उस पर से मात्र 6 प्रतिशत आबादी वाले पासवान समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले चिराग के लिए अब सीमित विकल्प है. अपने सियासी जीवन के कठिनतम दौर से गुजर रहे चिराग को अपने पापा की विरासत बचाने की चुनौती है. ऐसे में उन्हें बड़ा रिस्क लेना ही होगा. ऐसा नहीं है कि चिराग बड़े जोखिम को उठाने का माद्दा नहीं रखते. याद कीजिए जब 2020 के विधान सभा चुनाव में चिराग ने एनडीए में रहते हुए नीतीश से दुश्मनी मोल ली थी. एनडीए में रहते हुए नीतीश के खिलाफ ऐलान ए जंग करने का भले ही जो खामयाजा भुगतना पड़ा हो लेकिन चिराग ने तब जता दिया था कि रिस्क लेने का माद्दा उनके अंदर है.
चिराग ने जारी की चाचा-भतीजे के रिश्तों की पुरानी चिट्ठी
ऐसे समय में जब छह में से पांच सांसदों को ले कर चिराग के चाचा खुद को ही असली लोकजनशक्ति पार्टी करार दे रहे हैं. और जैसा कि प्रतीत हो चला है कि जदयू और भाजपा का हाथ चाचा पारस की पीठ पर है. तो अब चिराग के पास क्या विकल्प है. क्या चिराग भाजपाई भगवा चोला उतार फेकने का जोखिम उठायेंगे? चिराग बखूबी जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी जैसे विशाल वृक्ष के साये से निकल कर ही उन्हें अपने लिए रास्ता बनाना होगा. क्योंकि चिराग जानते हैं कि कोई भी बड़ी पार्टी भले ही क्षेत्रीय पार्टी से गठबंधन करती हो, पर उसका अंदर ही अंदर उसका निशाना छोटी पार्टियों को निगल जाने का होता है. ऐसी मिसाल मौजूद है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने शिवसेना को लगभग निगल लिया था. लेकिन इसका जब उद्भव ठाकरे को एहसास हुआ तो उन्होंने भाजपा से पिंड छुड़ा लिया.
चिराग को पार्टी से बेदखल करने की किसने लिखी पटकथा
शिव सेना से चिराग को सबक लेने की जरूरत है. साथ ही उन्हें खुद अपनी पार्टी के इतिहास पर गौर करने की जरूरत है. क्योंकि 20 वर्ष की इस पार्टी को पिछले कई सालों में अनेक बड़े झटकों का सामना करना पड़ा है.
LJP के इतिहास से लें सबक
2009 और 2011 की घटनाओं से भी चिराग को सबक लेने की जरूरत है. 2009 में जब केंद्र में मनमोहन सिंह की कांग्रेसी सरकार थी तो तो कांग्रेस ने लोकजनशक्ति पार्टी को तगड़ा झटका दिया था. एलजेपी की पूरी की पूरी युनिट कांग्रेस में शामिल हो गयी थी. तब रामविलास पासवान असहाय हो कर इस घटना को देखते रह गये थे. दूसरी घटना 2011 की है जब नीतीश कुमार 2010 में प्रचंड बहुमत से बिहार में सरकार बना चुके थे. कुछ महीनों बाद जदयू ने रामविलास पासवान के तीन में से दो विधायकों को तोड़ लिया था.
चूंकि लोकजनश्कति पार्टी का वह धड़ा जो चाचा पारस के पास है, भाजपा और जदयू के खेमे में जगह बना चुका है. मतलब साफ है कि अब चिराग की जरूरत न तो भाजपा को है और न ही जदयू को.
ऐसे में अब चिराग के पास बस एक ही विकल्प है कि वह अपने सर से भगवा गमछा उतार फेंकें. वह भाजपा मोह से निकलें. और सेक्युलर व समाजवादी धारे पर लौट आयें. अगर वह ऐसा करते हैं तो उन्हें अपने पुराने सहयोगी राजद के साथ वामदलों का भी सहयोग मिलेगा. साथ ही 17 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम समाज भी उन्हें खुले बाहों से स्वीकार करेंगे.
जहां तक चाचा पारस के धड़े की बात है उनमें वह काबिलियत नहीं कि कि पासवान समाज को अपनी तरफ आकर्षित कर सकें. लड़ाई लम्बी है लेकिन चिराग के लिए संभावनायें भी हैं.