घृणा के दौर में सुलह व समन्वय के अलमबरदार थे मौ. वहीदुद्दीन
मौलाना वहीदुद्दीन खान अब हमारे बीच नहीं रहे। यह घृणा और नफरत का दौर है। लेकिन वे कभी चुप नहीं बैठे। हमेशा आपसी समन्वय, सद्भाव पर जोर देते रहे।
ईर्शादुल हक, संपादक, नौकरशाही डॉट कॉम
मौलाना वहीदुद्दीन खान 96 साल की उम्र पूरी करके गए। उनकी रेहलत को कोरोना के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिये। एक ऐसा इस्लामी स्कॉलर जो ऐतेदालपसन्दी की राह का मुसाफिर था। जब दुनिया सभ्यताओं के टकराव के दौर में या तो उस तरफ थी या इस तरफ तो मौलाना ने बीच की राह इख्तियार की। वह सहअस्तित्व के अलम्बरदार थे। कठिनतम दौर में मुसलमानों में सकारात्मक सोच को प्रेरित करने वाले मौलाना की दर्जनों किताबें मैं ने पढ़ी। तब शौक़ हुआ कि उनसे मिला जाए। यह 1998 कि बात है।तब मैं पत्रकारिता में एंट्री मारने की कोशिश कर रहा था। सो निज़ामुद्दीन के उनके खूबसूरत मकान का दरवाजा खटखटाया। असर व मगरिब के दरम्यान का वक़्त था। उन्हें बताया गया कि बिहार से कोई पत्रकार आया है। उन्होंने मिलने से कोई खास दिलचस्पी नहीं ज़ाहिर की थी। मैंने कहला भेजा कि महज 10 मिनट का वक़्त चाहिए। 10 मिनट की शर्त पर मुलाकात को तैयार हुए।
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मिलते ही उन्होंने सवाल किया कि बिहार के पत्रकार तो मेरे खिलाफ लिखते हैं। इसलिये मैं उनसे नहीं मिलता। मैंने जवाब दिया कि आप कलैशेज ऑफ सिविलाइजेशन के खौफनाक दौर में भी मुसलमानों के पक्ष में खड़ा होने के बजाय उन्हें अपनी खामियों के अवलोकन पर ज़ोर देते हैं। आप हर मसले का हल ‘सुलह’ में तलाशने की सलाह देते हैं।
मेरी बातें सुनकर उन्हें यकीन हो गया कि मैंने उन्हें खूब पढ़ा है। फिर उन्हें, और खुद मुझे भी पता नहीं चला कि 10 मिनट के बजाए दो घंटे कैसे बीत गए।
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मौलाना की किताबें पढ़ी जानी चाहिये। 1990-2000 का दौर बड़ा बेरहम था। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को बम धमाकों से उड़ाया जाना, अफगानिस्तान पर सोवियत फौजों के गलबे के बाद अमेरिकियों का मुसल्लत होना और इधर भारत मे आये दिन दहशतगर्द हमले होना, आम बातें थी। ऐसे दौर में पूरी दुनिया के मुसलमानों के साथ खासकर, भारतीय मुसलमानों पर स्टेट और मीडिया के मतवातिर हमले जारी थे। यही वह दौर था जब “सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते, लेकिन सारे आतंकवादी मुसलमान होते हैं” का कथानक गढ़ा गया। हालांकि ये वही दौर था जब समझौता एक्सप्रेस और मालेगाव ब्लास्ट में भगवा आतंकवाद की परतें उधेड़ कर सामने लायी गईं।
मौलाना की ऐतेदाल पसन्दी की राह कई बार मुसलमानों के कुछ तबके को रास नहीं आती थी। लेकिन मौलाना इन बातों से बेफिक्र अपनी राह पर चले जा रहे थे। उसी दौर में मौलाना को राजीव गंधानी सद्भावना पुरस्कार भी मिला था।
मौलाना की किताबों में आप देखेंगे कि टकराव के दौर में जब तमाम मुसलमानों को एक ही चश्मे से देखने का सियासी अभियान चलता रहा तो ऐसे हालात से कैसे निपटा जाए, जैसे मुद्दों पर खूब चर्चा की है।