कोमल भावनाओं और सारस्वत-चेतना के साधु-पुरुष राजाबहादुर कीर्त्यानंद सिंह की जयंती पर कवि सम्मेलन का आयोजन
पटना,३० सितम्बर । कला, संगीत और साहित्य के संरक्षण और पोषण में बिहार के जिन राज–घरानों के नाम आदर से लिए जाते हैं, उनमें बनैली–राज का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अपेक्षाकृत बहुत छोटा होकर भी बनैली ने इन सारस्वत प्रवृतियों के संरक्षण और पोषण में जो कार्य किए, उनसे उसके प्रति सहज हीं मन श्रद्धा से भर उठता है। बनैली के राजाबहादुर कीर्त्यानंद सिंह कोमल भावनाओं और सारस्वत–चेतना के साधु–पुरुष थे। उन्होंने न केवल साहित्य और संस्कृति के पोषण और उनके विकास के लिए बड़े–बड़े दान–अवदान हीं दिए, अपितु अपने राज–दरबार में साहित्यकारों और कलाकारों को बड़े आदर और सम्मान से प्रतिष्ठा भी दी। उन्होंने बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के भवन–निर्माण में भी सन १९३७ में एक मुश्त दस हज़ार रूपए की सहायता राशि दी थी। आज उनके जैसे उदार दानियों और संस्कृति–संरक्षकों का अकाल पड़ गया है। यही कारण है कि, आज ये सारस्वत प्रवृतियाँ समाज में हासिए पर चली जा रही है। आज हमें कीर्त्यानंद सिंह और भी अधिक श्रद्धा से स्मरण होते हैं।
यह बातें आज यहाँ बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में कीर्त्यानंद सिंह एवं धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री जयंती पर आयोजित समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही।
डा सुलभ ने कहा कि, प्रदेश के कृतज्ञ साहित्यकारों ने सम्मान स्वरूप उन्हें एक सत्र के लिए सम्मेलन का अध्यक्ष भी बनाया और सम्मेलन भवन पर उनकी नाम पट्टिका भी लगाई,जो आज भी देखी जा सकती है। डा सुलभ ने मनीषी विद्वान धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हुए उन्हें महान हिन्दी–सेवी बताया। उन्होंने कहा कि, प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियों पर किए गए उनके कार्य, साहित्य–संसार की धरोहर हैं। इस विषय पर,राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित उनकी शोध–पुस्तक विश्व के ३० बड़े विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में शोधार्थियों के लिए संदर्भ–ग्रंथ के रूप में उपयोग में लाई जारही है।
सम्मेलन के साहित्य मंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि, कीर्त्यांन्द सिंह स्वयं एक बड़े कवि थे। उनके परिसर में प्रायः हीं कवि–सम्मेलन और साहित्यिक गोष्ठियाँ होती थी। वे उदारता के साथ कवियों को सम्मानित और पुरस्कृत करते थे। वे एक–एक कविता के लिए स्वर्ण–अशर्फ़ी दिया करते थे।
इस अवसर पर एक भव्य कवि–सम्मेलन का भी आयोजन किया गया, जिसका आरंभ कवि जयप्रकाश पुजारी की वाणी–वंदना से हुआ। वरिष्ठ कवयित्री डा शांति जैन ने वृद्ध–जनों की पीड़ा को अपने कविता का विषय बनाते हुए कहा कि, “दिन में दोपहर, फिर साँझ और रात रानी/ प्रात का वह बाल रवि बचपन दिवस का/सूर्य वह मध्यांह का,यौवन डीवा का/ अस्त होता भानु ज्यों वार्धक्य दिन का/ और फिर विश्रांति की वेला बनी वह रात चिर निद्रा सरीखी“। शायर आरपी घायल ने कहा, “फ़क़ीरी जब भी होती है, खुदा के नूर से रौशन/ज़माने का अँधेरा भी उजालों में नहाती है“।
व्यंग्य के सुप्रसिद्ध कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश‘ ने राजनीति की वर्तमान विद्रूपता पर इन पंक्तियों से प्रहार किया कि, “मुल्क के माथे पर मर्द नहीं, मुर्दा बैठ गया है/ महामद में ऐंठ गया है/ कहा था किस मुँह से आऊँगा, दो के बदले गरदने, दस–दस काट लाउँगा“। डा मधु वर्मा ने माँ के रूप में नारी का चित्र इस तरह खींचा कि, “नारी की आकृति में, तेरी मूक प्रतिमा नहीं माँ/ हम नारियों का चेतन स्वरूप है/” चर्चित कवि डा कुमार अरुणोदय ने ‘माँ‘को इन मार्मिक पंक्तियों से नमन किया कि, “हर साँस में हो, हर निवाले में हो माँ! ईश रूप छोड़, मात्री–रूप हीं सही है माँ/ माँ ईश्वर नही होती, माँ ही होती है माँ!”
डा मेहता नगेंद्र सिंह, डा पुष्पा जमुआर, बच्चा ठाकुर, राज कुमार प्रेमी, डा सुधा सिन्हा, कमलेन्द्र झा ‘कमल‘, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, कुमार अनुपम, पूनम सिन्हा प्रेयशी, सच्चिदानंद सिन्हा, मधु रानी,प्रभात धवन, पं गणेश झा, अमरेन्द्र कुमार, रजनीश कुमार गौरव, मासूमा खातून आदि कवियों ने भी अपनी विविध भावों की रचनाओं से सुधी श्रोताओं की तालियाँ बटोरीं। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन डा नागेश्वर प्रसाद यादव ने किया।
इस अवसर पर प्रो सुशील झा, श्रीकांत सत्यदर्शी, डा मुकेश कुमार ओझा, परवीर कुमार पंकज, ई आनंद किशोर मिश्र, रवींद्र सिंह, लक्ष्मी निधि, डा प्रफुल्ल कुमार समेत बड़ी संख्या में सुधीजन उपस्थित थे।