‘यह रमजान हिंदू-मुस्लिम दोनों को देशहित की तौफीक दे’
फुलवारीशरीफ के हाफिज शानुद्दीन हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए वर्षों से सक्रिय हैं। जितनी गहराई से कुरान समझते हैं, उतनी ही गीता-वेद। पढ़िए उनका आलेख-
हाफिज शानुद्दीन
विगत दो वर्षों से पूरी दुनिया कोरोना महामारी जैसी विकट रोग के खौफ से सहमी रही। कोरोना महामारी के कम होने के बाद अब मेरा देश भारत भी आगे बढ़ना चाहता है, परंतु आर्थिक तंगी, महंगाई, सामाजिक दुराव, वैचारिक मनभेद, जनता की पीड़ा के प्रति मीडिया की अनदेखी देश के विकास पथ के रोड़े हैं। इस रमज़ान अल्लाह तआला समस्त हिंदुओं और मुसलमानों को अपने मन की इच्छाओं का त्याग कर अपने देश के कल्याण के बारे में विचार करने की तौफीक दे। एक हदीस में मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने फरमाया : ‘होशियार और विवेकवान व्यक्ति वह है जो अपने नफ़्स (मन) को नियंत्रण में रखे और अपना हर कर्तव्य (अमल) परलोक की सफलता को ध्यान में रखते हुए करे। जबकि वह अज्ञानी और मूर्ख है जो स्वयं को अपनी इच्छाओं के अधीन कर दे और अल्लाह के आज्ञाओं का पालन करने के बजाय मनमाना आचरण करे और अल्लाह से आशा बांधे।‘
इसलिए रमज़ान के इस पवित्र महीने में हमें अपने मन की इच्छाओं का त्याग कर मानवीय कर्तव्यों का पालन करना है। रमज़ान का महीना पाने वाला यदि रमज़ान के आगमन पर खुद को लाभान्वित नहीं करता है, तो अभागा है। रमज़ान से संबंधित एक हदीस कुदसी में वर्णित है कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने फरमाया : “तबाह-व-बर्बाद हो गया वह व्यक्ति जिसने रमज़ान को पाया और अल्लाह की इबादत कर के स्वयं को नरक से बचाने का मुस्तहिक न बन सका, तबाह-व-बर्बाद हो गया वह व्यक्ति जिसने अपने बूढ़े माँ-बाप या इन दोनों में से किसी एक को पाया और उनकी सेवा कर के स्वयं को जन्नत का मुस्तहिक न बना सका, तबाह-व-बर्बाद हो गया वह व्यक्ति जिसने मेरा नाम सुना और मुझ पर दरूद नहीं भेजा।”
रोज़ा का लक्ष्य आत्मा की शुद्धि, हृदय कि सफाई, आचरण की दुरूस्तगी, व्यवहार की सौम्यता तथा सफल व्यक्तित्व का विकास करना है। इसलिए इसका समय केवल एक माह रखा गया है, जो न तो इतना अधिक है कि आम लोगों के सहन शक्ति से अधिक हो और न ही इतना कम है कि असल लक्ष्य ही समाप्त हो जाए। अल्लामा सैय्यद सुलेमान नदवी रहमतुल्लाह अलैह द्वारा उल्लिखित है कि “रोज़ा एक प्रकार की दवा है और दवा को तो दवा ही होना चाहिए था, अगर पूरा साल दवा में गुज़ार दिया जाता तो यह एक ला-ईलाज रोग बन जाता और मुसलमानों की शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती और उनकी खुशनुमा एवं शांत चित का ह्रास हो जाता। अगर यह एक या दो दिन का होता तो यह इतनी कम मुद्दत होती कि इसमें दवा का फायदा ज़ाहिर ही न होता। इसलिए इस्लाम ने रोज़ा के लिए साल के बारह महीनों में केवल एक माह का समय निर्धरित किया। इस एक महीने की विशेष आवश्यकता भी थी ताकि समस्त मुसलमान जो संसार के जिस कोने में भी रह रहे हों, एक ही समय में इस फर्ज़ को अदा करके इस्लाम के एकत्व की व्यवस्था का प्रदर्शन करें तथा इसके लिए वही समय सटीक था, जिसमें स्वंय कुरआन मजीद का अवतरण होना आरम्भ हुआ”।
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