सन् 1857 के विद्रोह का क्षेत्र विशाल और विविध था। आज़ादी की इस लड़ाई में विभिन्न वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदाय के लोगों ने जितने बड़े पैमाने पर अपनी आहुति दी, उसकी मिसाल तो विश्व इतिहास में भी कम ही मिलेगी। ‘1857: बिहार में महायुद्ध पुस्तक’ बिहार क्षेत्र में इस महायुद्ध का दस्तावेज़ी अंकन करती है।  पटना पुस्‍तक मेले में इस पुस्‍तक पर चर्चा के दौरान पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी ने कहा कि वरिष्ठ और चर्चित लेखक-पत्रकारों प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत के श्रम-साध्य अध्ययन-लेखन का सुफल इस पुस्तक में पहले की सारी कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया है। unnamed (1)

 

गांधी संग्रहालय के मंत्री डॉ रजी अहमद ने कहा कि बिहार के कई अंचलों में इस संघर्ष ने व्यापक जन-विद्रोह का रूप ले लिया था। बाग़ी सिपाहियों और जागीरदारों के एक हिस्से के साथ-साथ गरीब, उत्पीडि़त दलित और जनजातीय समुदायों ने इस महायुद्ध में अपनी जुझारू भागीदारी से नया इतिहास रचा था। यह पुस्तक मूलतः प्राथमिक स्रोतों पर आधारित है। पुस्तक में 1857 के दौरान मुल्क में सिर्फ एक जिला आरा जिला ऐसा था, जिसे कचहरी में हाजिर कराया गया था – आरा शहर बनाम सरकार’। इस शहर पर मुकदमा चला था। उसकी मुनादी की गयी थी। शहर पर कब्जे के सवाल पर भीषण लड़ाई हुई थी। हरिकिशन सिंह, जीवधर सिंह, सरनाम सिंह जैसे नायकों के मुकदमों का दस्तावेजी अंकन इस किताब में हैं।

 

साहित्‍यकार मदन कश्‍यप ने कहा कि इस किताब में अंग्रेजी राज के खिलाफ हजारों लड़ने वाले नायकों के बारे में पहली बार पड़ताल की गयी है। उन नायकों में दलित-पिछड़े, आदिवासी नायक हैं। ऐसे नायकों में राजगीर नालंदा की पहाडि़यों में दस साल लोहा लेनेवाले जवाहिर रजवार की कथा है। अनेक गाँवों में हथियार उठाने वाले ग्रामीणों की पड़ताल की गई है। बिहार के खेत-खलिहानों, गया, नालंदा, पटना, भोजपुर, जहानाबाद, औरंगाबाद के जीवंत संघर्ष को एक साथ दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस मौके पर प्रो0 पुष्पेन्द्र,  प्रो0 अभय कुमार, प्रो0 प्रमोदानन्द दास ने भी किताब पर अपने विचार व्यक्त किये।

By Editor