अशोक भारती का कहना है कि सत्ता की रस्साकशी में  ब्रह्मणवाद अपनी चालें चलता है, कभी-कभी कुछ पिछड़े नेता भी उसी ब्रह्मणवादी  हथियार से दलितों का शिकार करते हैं. पढिये कौन कर रहा है मांझी का शिकार?manjhi.nitish

नीतिश कुमार, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, मुलायमसिंह यादव सब समाजवादी हैं। सब पिछड़े वर्ग के बड़े नेता हैं। इन चारों में से दो नेता असली हैं और दो नेता फ़र्ज़ी।

लालू यादव और मुलायम ज़मीनी नेता हैं और उन्होनें लड़कर ब्राह्मणवादी राजनीति के बीच अपनी जगह बनाई है। लेकिन नीतिश कुमार और शरद यादव, दोनों मौक़ापरस्त और परजीवी नेता हैं।

नीतीश की असफल यात्रा, मांझी की बम्पर सभा

दोनों ही जोड़-तोड़ के ज़रिये राजनीति करते रहे हैं। दोनों का इतिहास सर्वज्ञात है।
देश की सबसे कमज़ोर जाति में पैदा हुए माँझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतिश कुमार वाहवाही लूट चुके हैं। लालू और नीतिश दोनों ही अलग-अलग कारणों से मौजूदा राजनीति में अलग-थलग पड़ चुके थे । नीतिश की असफल यात्राएँ और माँझी की बंपर सभाओं से बिहार की राजनीति में एक नई संभावना बन रही थी। यह संभावना सदियों से झूठी सामंती दिखावे में जकड़ी बिहार की राजनीति को नई दिशा की और ले जा रही थी, जिसमें बिहार का सबसे निचला तबक़ा ताल ठोक कर इतिहास के और ख़ुद अंधेरों को जीतने निकल रहा था।

 

भाजपा से न पटा तो सेक्युलर हो गये

माँझी इन संभावनाओं की आवाज़ बन रहे थे। उन्हें शुरूआती प्रोत्साहन तो लालू और नीतिश का ही था। लेकिन जैसे-जैसे माँझी के इर्द गिर्द बिहार का दलित-पिछड़ा जुटने लगा, वैसे-वैसे ब्राह्मणवाद और उसकी राजनीति से समझौता किये, नीतिश, लालू और स्वर्ण राजनीति और बिहार की भ्रष्ट अफ़सरशाही के पाँव उखड़ने लगे। पिछले चुनाव में शरद यादव और नीतिश दोनों ही अपने-अपने तरीक़े से भाजपा नेतृत्व वाले मोर्चे के नेता पद के लिये ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगाने के बावजूद फ़ेल होने पर सेक्यूलरिज्म का राग अलापने लगे। इन दोनों नेताओं को इस बात का डरने सताने लगा कि मांझी उन दोनों को दरकिनार कर दलितों के एकक्षत्र नेता बन कर उफर जायेंगे. ऐसे में लालू-नीतीश ठीक उसी तरह अपनी दुश्मनी भुला कर एक मंच पर आ कर मांझी के खिलाफ हो गये जैसे अक्सर ब्रहम्णवादी शक्तियां एक संग हो कर पिछड़ों के खिलाफ गोलबंद हो जाती हैं. ऐसे में नीतीश-लालू ने ब्रह्मणवादी फार्मुले को ही अपना लिया और दलित नेतृत्व को कुचलने के लिए कूद पड़े.

ब्राह्मणवाद को जब बेहतर ब्राह्मणवादी नेता मिल जाता है तो वह स्वाभाविक तौर पर दोयम दर्जे के ब्राह्मणवादी के नेतृत्व को नकार देता है। नीतिश और शरद की यही विंडबना है। लालू को तो ब्राह्मणवाद पहले ही ठिकाने लगा चुका था।

वाह क्या तर्क है! 

राजनीति संभावनाओं की दौड़ है, जिसमें हरेक विचारधारा अपने लिये सत्ता की संभावनायें तलाशती रहती हैं। अब, जब बिहार के दलित-पिछड़े ख़ुद के लिये संभावनायें तलाश रहे हैं, तो वही नीतिश और शरद जो ख़ुद ‘साम्प्रदायिक’ भाजपा के रथ पर सवार होकर बिहार में सरकार बनायी और उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ा, दलित माँझी पर ‘साम्प्रदायिक’ होने का आरोप लगा रहे हैं। वाह क्या तर्क है!

कुछ दलित और मुस्लिम भी दुविधा में हैं। जागो भाइयों-बहनों, ब्राह्मणवाद बड़ी होशियारी से बनती संभावनाओं से आपको ख़ुद की गढ़ी झूठी नैतिकता से आपकी नियति से आपको वंचित कर देना चाहता है। यह आपको ख़ुद के हाथ में है कि आप अपनी लड़ाई के मापदंड ख़ुद अपनी ज़रूरतों और अम्बेडकरवादी दृष्टि के हिसाब से तय करेगें या आप ब्राह्मणवादी सोच और मूल्यों के मापदंड को मानेंगें!

ashokअशोक भारती नेशनल कंफेड्रेशन ऑफ दिलत ऑगर्नाइजेसंस के चेयरमैन हैं.उनसे nacdor@gmail.com     पर सम्पर्क किया जा सकता है. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं. सम्पादक का इससे सहमत होना जरूरी नहीं

 

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