राजनीतिक ने‍तृत्‍व के प्रशासनिक अधिकारियों पर आश्रित होने के कई खतरे हैं। यह प्रवृत्ति भी खतरनाक है। इससे सचेत करता पढि़ए यह आलेख।

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केंद्र में नीति-निर्धारण में नौकरशाहों पर ज्यादा भरोसा करना घातक होगा. वे अपने कॉरपोरेट और विदेशी हितैषियों के द्वारा बतायी गयी नीतियों को प्रमोट करेंगे. मोटे तौर पर आइएएस अधिकारी का व्यवहार तात्कालिक हितों को साधने का होता है. नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति में स्पष्ट एवं साहसिक दिशा में परिवर्तन किया है. देश की रक्षा के लिए हथियारों की खरीद आदि में तेजी लायी है. लेकिन, कुछ निर्णय पुरानी दिशा में तेजी से चलने के भी किये गये हैं. विदेशी निवेश को जोर-शोर से आमंत्रित करना, खुदरा रिटेल में विदेशी निवेश को ढील देना और आधार कार्ड व्यवस्था को बढ़ावा देना इसी श्रेणी में आते हैं. भाजपा ने पहले खुदरा रिटेल को आम आदमी के विरुद्ध तथा आधार योजना को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए हानिकारक बताया था. यूपीए सरकार द्वारा जनहित में लागू किये गये भूमि अधिग्रहण कानून को भी अब ढीला करने पर विचार किया जा रहा है. इन निर्णयों के पीछे देश की नौकरशाही का हाथ दिखता है.

डॉ भरत झुनझुनवाला, प्रख्‍यात अर्थशास्त्री

 

 

हमारी परंपरा में मूल रूप से नौकरशाहों को भ्रष्ट और स्वार्थी बताया गया है. ‘अथर्शास्त्र’  में कौटिल्य लिखते हैं कि साधुओं से कहना चाहिए कि सरकारी अधिकारियों द्वारा राजस्व की चोरी का पता लगाने के लिए अपने शिष्यों को कहें,  मंत्रियों और राजस्व अधिकारियों पर नजर रखने के लिए जासूसों की नियुक्ति करें तथा जासूसों द्वारा भेष बदल कर अधिकारियों को घूस देकर ट्रैप करें. ऐसी नौकरशाही से नरेंद्र मोदी ने गुजरात में अच्छे कार्य कराने का श्रेय हासिल किया है. लेकिन, दिल्ली में नौकरशाही से काम लेने में अंतर है. राज्य सरकार का कार्य केंद्र सरकार द्वारा बनायी गयी नीतियों को लागू करने का होता है. नीति निर्धारण केंद्र करता है. राज्य के अधिकार में आनेवाले क्षेत्रों पर भी केंद्र ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है, जैसे बिजली, पर्यावरण,  श्रम और खनन आदि. राज्य के अधिकार में पुलिस तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे कुछ क्षेत्र ही बचे हैं. राज्य की भूमिका कंपनी के मैनेजर जैसी रह गयी है.

 

प्रश्न है कि नौकरशाही की सकारात्मक भूमिका को क्या नीति-निर्धारण में लागू किया जा सकता है?  इनके चरित्र का एक हिस्सा भ्रष्टाचार का है, जिसे कौटिल्य ने बताया है. दूसरे हिस्से की व्याख्या समाजशास्त्री वेबर ने की है. उनके अनुसार नौकरशाही की कार्यशैली ‘फेसलेस’ यानी व्यक्तिहीन होती है. इनके द्वारा नियमों को बिना बुद्घि लगाये लागू किया जाता है, जैसे कि वे रोबोट हों. जैसे यदि सरकार ने आदेश दिया कि मनरेगा के अंर्तगत कार्य प्रात: 8 बजे शुरू किया जायेगा, तो असम से गुजरात तक नौकरशाही उसे लागू कर देगी. यह नहीं देखा जायेगा कि असम में सूर्योदय जल्द एवं गुजरात में देरी से होता है.

 

राज्य स्तर पर नौकरशाही की यह बुद्धिहीनता लाभप्रद रही है. जैसे मनरेगा के अंतर्गत श्रमिकों को काम देने का किसानों और देश की खाद्य सुरक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा, ऐसा चिंतन नौकरशाह की काबिलियत के बाहर होता है. केंद्र सरकार के एक पूर्व सचिव कहते हैं कि अधिकारी अपने स्वार्थ के आधार पर निर्णय लेते हैं. जैसे मनरेगा के माध्यम से वे रोजगार सृजन की नीति बनायेंगे, चूंकि इसमें राशि आवंटित करने में घूस खाने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं. फर्जी कार्यों तथा किसानों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से इन्हें कुछ लेना-देना नहीं हैं. मनरेगा के स्थान पर किसानों व उद्यमियों को रोजगार सब्सिडी देने में इनकी रुचि कम रहती है, क्योंकि इसमें नौकरशाही को कम लाभ मिलता है. नौकरशाहों को पेड़ लगाने और काटने के कार्यक्रमों में चयन करना हो तो वे पेड़ काटने के कार्यक्रम का चयन करेंगे,  क्योंकि इससे घूस एकमुश्त और तत्काल मिलेगी.

 

बड़े कॉरपोरेट घराने की पॉलिसी है कि आइएएस अधिकारियों की संतानों को विदेश में पढ़ाई के लिए वजीफा दे दो. वे जानते हैं कि इन अधिकारियों की नियुक्ति आज नहीं तो कल ऐसे स्थानों पर होगी, जहां उनसे मनचाहे काम कराना लाभप्रद होगा. विदेशी ताकतें भी नौकरशाहों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं. एक बार मैं यूरोपीय यूनियन के अधिकारी का साक्षात्कार करने के लिए गया. उन्होंने अपनी बात कही और इशारा किया कि मुझे यूरोपीय यूनियन के ब्रसल्स स्थित कार्यालय से न्योता भेजा जा सकता है. परंतु,  मैंने लेख में उनके इच्छित दृष्टिकोण का अनुमोदन नहीं किया. वह न्योता भी नहीं आया. केंद्र सरकार के एक सेवानिवृत्त ऊर्जा सचिव को विश्व बैंक द्वारा लगभग 50 हजार रुपये प्रति घंटे की सलाहकारी फीस दी जा रही है. इस तरह प्रलोभनों के जरिये विदेशी ताकतों द्वारा नौकरशाहों से मनचाही नीतियां बनवा ली जाती हैं.

 

केंद्र में नीति-निर्धारण में नौकरशाहों पर ज्यादा भरोसा करना घातक होगा. वे अपने कॉरपोरेट और विदेशी हितैषियों के द्वारा बतायी गयी नीतियों को प्रमोट करेंगे. इन्हें न देश की संप्रभुता से मतलब है, न आम आदमी से. रिटेल में विदेशी निवेश को सरल बनाना, जीन परिवर्तित खाद्यान्नों की फील्ड ट्रायल की छूट देना, भूमि अधिग्रहण कानून को ढीला करना आदि इसी मानसिकता की उपज हैं. मोटे तौर पर आइएएस अधिकारी का व्यवहार तात्कालिक हितों को साधने का होता है. अत: इनकी सलाह पर चलने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बचना चाहिए.

साभार : प्रभात खबर

By Editor