नौकरशाही पर यूं तो बहुत कुछ लिखा और बोला जाता है.पर शायर संजय कुमार कुंदन ने अपनी नज्म में नौकरशाहों को जिस अंदाज में महसूस किया है वह निराला है. शायर ने नौकरशाहों के रोब,ठाठ और आन-बान की सच्ची तस्वीर कैसे पेश की है, आप भी महसूस करें. कुंदन की इस नज्म का शीर्शक तो अब असली आज़ादी आयी है. पर हमने उनकी नज्म के मिसरे पीली बत्ती वाले बच्चे करने की गुस्ताखी की है.

बाहर आओ , बाहर आओ
घर के अन्दर मत बैठो तुम
रिश्तों की ज़ंजीर है घर में
इक मुब्हम तकदीर है घर में
घर में दबी-दबी -सी सिसकी
घर में लम्हों पर पाबंदी
घर में माया,घर में ममता
और मन तो है जोगी रमता
जोगी को रमता ही छोडो
पानी को बहता ही छोडो

बाहर आकर घर को देखो
कटे हुए इस पर को देखो
बाहर देखो कैसे मंज़र
देखो ,देखो कितने दफ़्तर
दफ़्तर के अन्दर हैं साहब
इक भूरे बन्दर हैं साहब
देख ,फिरंगी कहाँ गए हैं
बच्चे अपने छोड़ गए हैं
गहरी अना में डूबे बच्चे
गरचे काले-काले बच्चे
पीली बत्तीवाले बच्चे
ओहदे के मतवाले बच्चे
ज़िद है मुल्क का भला करेंगे
बात किसी की नहीं सुनेंगे

और इनके अमले हैं कितने
कठपुतली- से हिलते-डुलते
छोटे अफ़सर,क्लर्क -किरानी
ड्राईवर,माली ,कितने प्राणी
साहब को इमां का भरम है
गरचे जितना मिले वो कम है
अपनी बर्हनगी को छुपायें
नंगा मातहतों को कराएं
बाहर आकर घबराओ तुम
ये सब देख के पछताओ तुम
ये मंज़र आज़ादी का है
जिसमें चुप रहने में भला है

सड़क पे अब राजा आयेंगे
सब क़तार में लग जायेंगे
गाड़ी होगी शोर मचाती
चलनेवालों को धमकाती
पुलिस के अब डंडे बरसेंगे
हम सब दरसन को तरसेंगे
राजाजी के कपड़े उजले
और उनके अलफ़ाज़ हैं प्यारे
उनके चेहरे पर चिकनाई
हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई
अब असली आज़ादी आयी
अपना कौल यही था भाई
अंग्रेजों को मार भगाया
भाई राजा बनकर आया

उसके पाँव हैं सर पर तो क्या
अपना हाल है बदतर तो क्या
है निज़ाम अंग्रेजों का ही
पर सर पर है अपना भाई
कितने अफ़सर उसकी ख़ातिर
और सब हर फ़न में है माहिर
ये सब मिलकर राज करेंगे
जो परजा परजा ही रहेंगे
नयी ग़ुलामी में है इज़्ज़त
हमको अब ये बहुत है राहत
बूट नहीं गोरों के, सर पे
जितने मालिक सब हैं अपने

बेहतर है ,अब घर ही जाओ
अपनी बीवी को समझाओ
अपने बच्चों को बहलाओ
रिश्तों की ज़ंजीर है सबकुछ
मिटी हुई तक़दीर है सबकुछ
ये उजड़ी जागीर है सबकुछ

संजय कुमार कुंदन एक पहचाना नाम. कुछ लोग उन्हें उर्दू का शायर मानते हैं तो कुछ देवनागरी का कवि.उन्हें इस बात का ख़ुद भी रंज है क्योंकि वह कहते उर्दू में हैं और लिखते देवनागरी में.इसलिए वह मानते हैं कि न तो वह उर्दू के हो सके न हिंदी के.ज़िंदा रहने के लिए नौकरी करते हैं.लिखने का ख़ब्त है. कभी कभी तो लिखने के झटके भी आते हैं उन्हें.दो मज्मूआए-कलाम शाया हुए हैं.

By Editor