गंगा के कछार के गांव अकबरपुर मलाही के लोग बूढ़ापे का सहारा यानी छड़ी निर्माण से खुशहाली की  इबारत लिखने में लगे हैं यहां की छड़ी के लिए  रोजाना कोलकाता के पारियों का जमघट लगता है.

सांकेतिक फोटो
सांकेतिक फोटो

अनूप नारायण सिंह की रिपोर्ट

हाजीपुर जिले का अकबरपुर प्रखण्डका मलाही गांव आम तौर पर बिहार के अन्य पिछड़े और वंचित गांवों से अलग नहीं. यहाँ के ग्रामीण अपने हाथो से खुद अपनी किस्मत सवांर रहे हैं. वह भी बुढ़ापे का सहारा- छड़ी और बकुली बनाकर. लगभग 100 घरों वाले इस गांव में लुहार जाति  की जनसँख्या सबसे ज्यादा है.विगत 15 वर्षो से इस गांव के लोग रोजगार के तौर पर बकुली (छड़ी }निर्माण में लगे हैं.

इस लघु उद्योग के जन्मदाता हैं इसी गांव के कपिलदेव शर्मा. नौकरशाही डॉट इन से बात चीत के क्रम में वे कहते हैं कि पहले वे लोग भी साधारण बढ़ईगिरी ही किया करते थे.2001 में उन्होंने प्रयोग के तौर पर पहली बार बकुली बनाया.उसके बाद तो पूरा का पूरा गांव ही इस धंधे में उतर गया.

सोनपुर से कोलकाता तक

तर्कुल (ताड़ ) के पेड़ की लकड़ी से बकुली और छड़ी का निर्माण होता है आस पास के इलाके में ताड़ का पेड़  बहुतायत में पाया जाता है.आम तौर पर इसकी लकड़ी का कोई व्यवसायिक उपयोग नहीं होता लेकिन जब से बकुली निर्माण की शुरुआत हुई है ताड़ का पेड़ की कीमत में इजाफा हुआ है.

पहले इस गांव में बनने वाली बकुली और छड़ी केवल सोनपुर मेले में ही बिकती थी पर अब कोल्कता के व्यापारी थोक में यहाँ से माल खरीद कर ले जाते हैं.राजेश्वर शर्मा कहते है कि एक बकुली के निर्माण पर औसतन 250 रुपये का खर्च अत है 300 रुपये के दर से थोक व्यापारी इस गांव से बकुली खरीद कर ले जाते हैं. अब तो कारीगरों को अग्रिम भुगतान भी इन व्यापारियों द्वारा किया जा रहा है.

स्वालम्बन के साथ जीने की कला सीख चुके इस गांव की महिला इंदु शर्मा के नेतृतव में 30 महिलाओं ने सवयं सहयता समूह भी बना रखा है. उत्तर बिहार ग्रामीण बैंक द्वारा इस समूह को आर्थिक सहायता भी प्रदान की जा रही है. अकबरपुर मलाही गांव आज अभाव में अविरल अपने हुनर से अपने पैर पर खड़ा होकर बिहार के हजारों बिप्पन गावों के लिये आशा की किरण बन चुका है.

By Editor

Comments are closed.