आख़िर ऐसा क्यों हुआ कि मुज़फ़्फरनगर में हर राजनीतिक दल के नेता अपनी-अपनी पार्टी नहीं, बल्कि अपने-अपने सम्प्रदायों के नाम पर बँट गये? कमर वहीद नकवी का आकलन
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दंगा आया और चला गया. एक बार फिर हमें नंगा कर गया. लेकिन इस बार जैसा दंगा आज से पहले कभी नहीं देखा. पहली बार इतने मुखौटे उतरे हुए देखे, पहली बार देखे सारे चेहरे कीचड़ सने हुए. पार्टी, झंडा, टोपी, निशान तो बस दिखाने के दाँत रहे, उनके खानेवाले दाँतों ने दंगे की भरपेट दावत उड़ायी. मुज़फ़्फ़रनगर ने सचमुच सारी राजनीतिक पार्टियों के कपड़े उतार दिये. जो चेहरे इतिहास में दंगों के लिए बदनाम रहे हैं, उनकी तो छोड़िये. वह कब आग भड़काने का कोई मौक़ा छोड़ते हैं! लेकिन ओढ़े गये ‘सेकुलर’ लबादों के नीचे छिपे साम्प्रदायिक भेड़ियों की डरावनी शक्लें पहली बार इस तरह बेनक़ाब हुईं!

दंगों की साजिश

क्यों, आख़िर ऐसा क्यों हुआ कि मुज़फ़्फरनगर में हर राजनीतिक दल के नेता अपनी-अपनी पार्टी नहीं, बल्कि अपने-अपने सम्प्रदायों के नाम पर बँट गये? बीजेपी और समाजवादी पार्टी तो ख़ैर वैसे ही दंगों की साज़िश में गहरे तक डूबी मानी जा रही हैं, लेकिन बीएसपी, काँग्रेस और दूसरी पार्टियों के नेता भी क्यों भड़काऊ कारोबार में शामिल हो गये? और तो और, उस इलाक़े में कभी हिन्दू-मुसलिम एकता का अलख जगानेवाले किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत के बेटे नरेश टिकैत को क्या हो गया कि वे अपने मरहूम पिता की विरासत को सहेजे नहीं रख पाये? आख़िर ऐसा क्या था कि आज़ादी के बाद पहली बार दंगों के अजगर ने गाँवों को अपनी चपेट में ले लिया, वह भी एक-दो नहीं, 94 गाँवों को?

इसीलिए इस दंगे के संकेत बेहद ख़तरनाक हैं. मुज़फ़्फ़रनगर बैरोमीटर है. उसने बता दिया कि देश के राजनीतिक-सामाजिक वायुमंडलीय दबाव की क्या स्थिति है. बरसों से चल रहे राजनीति के बेशर्म तमाशों ने देश के पर्यावरण में जो ज़हर लगातार घोला है, वह बढ़ते-बढ़ते अब यहाँ तक पहुँच गया है कि शहर, गाँव, गली, चौबारे सब पर उसका असर दिख रहा है.

एक ओर हिन्दू राष्ट्र की भगवा राजनीति, दूसरी ओर सेकुलर समाज बनाने का संघर्ष. आज़ादी के बाद देश की यात्रा यहाँ से शुरू हुई थी. दो धाराएँ साफ़ थीं, हिन्दुत्व की और सेकुलरिज़्म की. हिन्दुत्व का अपना वोट बैंक था, बहुत छोटा. लेकिन वह धीरे-धीरे बढ़ता गया. क्यों? इसलिए कि हमने सेकुलरवाद को भी वोट बैंक से नत्थी कर दिया. सेकुलरवाद जीवनशैली होनी चाहिए थी, उसे पारदर्शी और ईमानदार होना चाहिए था, लेकिन वह बन गया वोट बैंक की राजनीति का अवसरवादी हथियार. सारी समस्या यही है. सारा ज़हर इसीलिए है.

विडंबना

क्या विडम्बना है? सेकुलर पार्टियाँ मुज़फ़्फरनगर में ख़ुद अपने नेताओं को ‘सेकुलर’ क्यों नहीं रख पायीं? इसलिए कि सच यह है कि सेकुलरवाद में उनकी ख़ुद की कोई आस्था नहीं है. और उन्होंने वोटों की फ़सलें काटने के लिए सेकुलरवाद का जो राजनीतिक फ़ार्मूला समय-समय पर पेश किया, उसने एक अलग क़िस्म की साम्प्रदायिकता को पैदा किया, पाला-पोसा और बढ़ाया. जो नेता कल तक साम्प्रदायिक थे, वे पार्टी बदलते ही रातोंरात ‘सेकुलर’ हो जाते हैं! कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी में आते हैं तो बाबरी मसजिद गिरा कर भी सेकुलर और वापस बीजेपी में पहुँचते हैं तो फिर से मसजिद ध्वंस पर ‘गर्वित’ हो जाते हैं. आज़म खाँ जैसे लोग अगर ‘सेकुलर’ माने जायें तो ‘साम्प्रदायिक’ किसे कहेंगे भाई? हर ‘सेकुलर’ पार्टी में ऐसे सैंकड़ों नाम हैं, कहाँ तक गिनायें.

तमाम ‘सेकुलर’ पार्टियों के सैंकड़ों ऐसे हथकंडे रहे, जिनसे उलटे उन्हें ही मदद मिली जो सेकुलरवाद के शत्रु थे. कौन जानता है कि 1985 में शाहबानो मसले पर तत्कालीन काँग्रेस सरकार ने अगर राजनीतिक जोखिम उठाने का साहस दिखाया होता तो आज का भारत कैसा होता? सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को संसद ने क़ानून बना कर बेअसर कर दिया, मुसलमान इससे ख़ुश हो गये, हिन्दुओं में क्षोभ फैलना स्वाभाविक था. उन्हें बहलाने के लिए राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद का ताला खुलवा दिया गया, बाद में कांग्रेस के सहयोग से मन्दिर का शिलान्यास भी हो गया! यह था सेकुलरवाद का एक नमूना! मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों को बहलाया गया, तो हुए न पूरी तरह सेकुलर!

बस पेंच यही है. इस सेकुलरवाद ने दोनों ओर की साम्प्रदायिकताओं के मुँह ख़ून लगा दिया. यही सेकुलरवाद की त्रासदी है. आज हर तरफ़ यही खेल है. यह राजनीति नहीं, राखनीति है, जो न रुकी तो एक दिन सब कुछ राख कर देगी. जनता को यह समझना चाहिए!

अदर्स वॉयस कॉलम के तहत हम अन्य मीडिया में प्रकाशित लेख को साभार छापते हैं. यह लेख लोकमत से साभार.

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