कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी से अलग होने का जोखिम उठाने वाले अधिकतर नेता सियासत में गुम हो जाया करते हैं लेकिन वीपी सिंह ने कांग्रेसी सत्ता की चूलें हिला दी और सत्ता पर काबिज भी हुए.इसके पीछे सामाजिक न्याय का नजरिया व मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की उनकी वचनबद्धता थी. पढ़िये जयंती पर विशेष आलेख-

 
जयंत जिज्ञासु
आज आरक्षण के प्रणेता, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री (9 जून 1980 – 19 जुलाई 1982), भारत सरकार के पूर्व वित्त व रक्षा मंत्री एवं भारत के 7वें प्रधानमंत्री (2 दिसंबर 1989 – 10 नवंबर 1990) विश्वनाथ प्रताप सिंह (25 जून 1931 – 27 नवंबर 2008) की आज 87वीं जयन्ती है।
90 के दशक में पटना के गाँधी मैदान की सद्भावना रैली में देश के सभी बड़े नेताओं की मौजूदगी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जनसैलाब के बीच जोशोखरोश के साथ वी पी सिंह का अभिनंदन कर रहे थे :
 
राजा नहीं फ़कीर है
भारत की तक़दीर है।
 
7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने की थी। शरद यादव, रामविलास पासवान, अजित सिंह, जार्ज फ़र्णांडिस, मधु दंडवते, सुबोधकांत सहाय, आदि की सदन के अंदर धारदार बहसों व सड़क पर लालू प्रसाद जैसे नेताओं के संघर्षों की परिणति वीपी सिंह द्वारा पिछड़ोत्थान के लिए ऐतिहासिक, साहसिक व अविस्मरणीय फ़ैसले के रूप में हुई।
 
वीपी सिंह का कालजयी वक्तव्य जनमानस पर आज भी अंकित है-
“मण्डल से राजनीति का ग्रैमर बदल गया और एक चेतना डिप्राइव्ड सेक्शन में आई, जो पावर स्ट्रक्चर में नहीं थे, उनको एक कॉन्सशनेस आयी । हम समझते हैं, ये कॉन्सशनेस
इंडिविजुअल पार्टी या इंडिविजुअल लीडर से से बड़ी चीज़ आई। हो सकता है, कोई एक पिछड़े वर्ग का नेता इलेक्शन हारे या जीते, लेकिन उस पर यह आरोप नहीं लगाना चाहिए कि मंडल सफल हुआ या विफल क्योंकि पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक का सोशल कंपोजिशन देखें तो वह बदल रहा है। पार्टी कोई भी हो, डिप्राइव्ड सेक्शन के लोग ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में आ रहे हैं जिससे डिसीज़न मेकिंग बॉडीज़ का सोशल कंपोजिशन बदल गया है।”
 
आरक्षण का सफ़र
प्रथम पिछड़ा आयोग की रिपोर्ट पर धोखेबाजी
29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग साहित्यकार दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ। कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंद्र सरकार को सौंपी थी। अपनी अनुशंसाओं में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने, सम्पूर्ण स्त्री को पिछड़ा मानते हुए मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70%, सभी सरकारी व स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी में 25%, द्वितीय श्रेणी में 33.33% तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 40% आरक्षण की सिफ़ारिश कालेलकर ने की थी। यह रिपोर्ट अपने आप में अद्भुत इसलिए है कि तमाम विसंगतियों और ग़ैर बराबरी का ज़िक्र करने के बाद रिपोर्ट बनाने वाला ही आख़िर में नोट लिखता है कि इसे फिलहाल लागू नहीं किया जाए। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित नेहरू ने पंडित कालेलकर की सिफारिशें ख़ारिज कर दी थी और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा लिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा, अतः इसे लागू न किया जाय।
 
392 पृष्ठ की मंडल कमीशन की रिपोर्ट देश को सामाजिक-आर्थिक​ विषमता से निबटने का एक तरह से मुकम्मल दर्शन देती है जिसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद बी.पी. मंडल ने अपने साथियों के साथ बड़ी लगन से तैयार किया था। 20 दिसंबर 1978 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत 6 सदस्यीय नए पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की जिसके अध्यक्ष बीपी मंडल व सचिव गिल साहब थे। आयोग की विज्ञप्ति 1 जनवरी, 1979 को जारी की गई, जिसकी रिपोर्ट आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को गृहमंत्री ज्ञानी जेल सिंह को सौंपी, राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। 30 अप्रैल 1982 में इसे सदन के पटल पर रखा गया, जो 10 वर्ष तक फिर ठंडे बस्ते में रहा। इसे न इंदिरा गांधी ने लागू किया न राजीव गांधी ने। बीपी मंडल ने 3000 से ज़्यादा जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाया और उनकी संख्या 52 % सामने आई। इस रपट की अहम सिफ़ारिशें कुछ यूं थीं:

सदन में शरद तो सड़क पर लालू ने लड़ी लड़ाई
 
पिछड़ों को सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण, प्रोन्नति में पिछड़ों को आरक्षण, पिछड़ों का क़ोटा न भरने पर तीन साल तक खाली रखने की संस्तुति, SC/ST की तरह ही आयु सीमा में OBC को छूट देना, SC/ST की तरह ही पदों के प्रत्येक वर्ग के लिए सम्बन्धित पदाधिकारियों द्वारा रोस्टर प्रणाली अपनाने का प्रावधान, वित्तीय सहायता प्राप्त निजी क्षेत्र में पिछड़ों का आरक्षण बाध्यकारी बनाने की सिफारिश, कॉलेज, युनिवर्सिटीज़ में आरक्षण योजना लागू करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग को फ़ीस राहत, छात्रवृत्ति, छात्रावास, मुफ़्त भोजन, किताब, कपड़ा उपलब्ध कराने की सिफ़ारिश, वैज्ञानिक, तकनीकी व व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ों को 27% आरक्षण देने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के छात्रों को विशेष कोचिंग का इंतजाम करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के भूमिहीन मजदूरों को भूमि देने की सिफ़ारिश, पिछड़ों की तरक्की के लिए पिछड़ा वर्ग विकास निगम बनाने की सिफ़ारिश, राज्य व केंद्र स्तर पर पिछड़ा वर्ग का अलग मंत्रालय बनाने की सिफ़ारिश एवं
पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने की सिफ़ारिश।
 
वीपी सिंह का जन मोर्चा
बोफ़ोर्स विवाद को लेकर वीपी सिंह ने जांच के लिए फाइल आगे बढ़ा दी थी, राजीव गांधी से मनमुटाव के बाद इस्तीफ़ा देकर उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान के साथ मिलकर जनमोर्चा का गठन किया। जब जनता दल बना तो उसने 89 के लोकसभा चुनाव में मंडल की सिफारिशें लागू करने की बात घोषणापत्र में शामिल किया।
 
मंडल कमीशन लागू होने की दास्तान भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। हरियाणा में मेहम कांड और कुछ अन्य बिंदुओं पर ताऊ देवीलाल से वीपी सिंह की खटपट कुछ इस कदर बढ़ गई थी कि मंत्रिमंडल से उन्हें ड्रॉप करने तक की बात हो गई। देवीलाल अपना शक्ति-प्रदर्शन करने के लिए एक विशाल रैली करने जा रहे थे। बस यहीं पर शरद यादव ने वीपी सिंह के सामने एक शर्त रख दी कि या तो रैली से पहले मंडल लगाइए, नहीं तो हम देवीलाल जी के साथ अपनी पुरानी यारी निभाएंगे। लगातार सरकार पर मंडराते ख़तरे और मध्यावधि चुनाव की आशंका को देखते हुए जनता दल के जनाधार को और ठोस विस्तार देने की आकांक्षा पाले वी.पी. सिंह की सरकार ने अंततः 7 अगस्त 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की। 9 अगस्त को उपप्रधानमंत्री देवीलाल ने वीपी सिंह के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था।
चाहे जो भी हो, पर उपेक्षित समाज विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस साहस और दृष्टि को कभी भुला नहीं सकेगा।
 
आरक्षण के विरोध में जल उठा देश
10 अगस्त को आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गया। 13 अगस्त 90 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी हुई। 14 अगस्त को अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्ज्वल सिंह ने आरक्षण व्यवस्था के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 19 सितम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया और एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए। 17 जनवरी 1991 को केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची तैयार की। 8 अगस्त 91 को रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफ़ारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया और वे गिरफ़्तार किर लिए गए। 25 सितंबर 91 को नरसिंहा राव सरकार ने सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान की। आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का निर्णय लिया जिसमें ऊँची जातियों के अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। 1 अक्टूबर 91 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आरक्षण के आर्थिक आधार का ब्यौरा माँगा।
 
जब मामला कोर्ट में अटका, तो लालू प्रसाद ने सबसे आगे बढ़ कर इस लड़ाई को थामा, रामजेठमलानी जैसे तेज़तर्रार वकील को न्यायालय में मज़बूती से मंडल का पक्ष रखने के लिए मनाया और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। 30 अक्टूबर 91 को मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर की बाधा के साथ आंशिक रूप से मंडल कमीशन की सिफ़ारिश को लागू करने का निर्णय सुनाया। साथ ही, पीवी नरसिम्हा राव की तत्कालीन सरकार द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न अगड़ी जातियों के लिए 10 % आरक्षण के नोटिफिकेशन को सिरे से खारिज़ किया, और कहा कि पिछड़ेपन का पैमाना महज आर्थिक नहीं हो सकता। इस मामले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन सर्वप्रमुख क्राइटेरिया है। फ़ैसले में यह भी कहा गया कि एससी, एसटी और ओबीसी मिलाकर आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार नहीं जानी चाहिए।
 
8 सितम्बर 1993 को केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की। 20 फरवरी 1994 को मंडल आयोग की रिफ़ारिशों के तहत वी. राजशेखर आरक्षण के जरिए नौकरी पाने वाले पहले अभ्यर्थी बने जिन्हें समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने नियुक्ति पत्र सौंपा। 1 मई 94 को गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के तहत आरक्षण व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला हुआ। 11 नवंबर 94 को उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार की नौकरियों में कर्नाटक सरकार द्वारा 73 फीसदी आरक्षण के निर्णय पर रोक लगाई।
 
वर्षों धूल फांकने के बाद मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर सामाजिक न्यायपसंद नेताओं द्वारा सदन के अंदर लगातार धारदार बहस और सड़क पर लालू जैसे अदम्य उत्साही लड़ाकाओं के सतत संघर्ष के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री व पिछड़ों के उन्नायक श्री वी पी सिंह ने अपनी जातीय सीमा खारिज़ करते हुए, बुद्ध की परम्परा का निर्वहन करते हुए इस देश के अंदर लगातार बढ़ती जा रही विषमता की खाई को पाटने हेतु कमीशन की रपट को लागू करने का साहसिक, ऐतिहासिक व सराहनीय क़दम उठाकर यह स्पष्ट संदेश दिया कि इच्छाशक्ति हो व नीयत में कोई खोट न हो, तो मिली-जुली सरकार भी क़ुर्बानी की क़ीमत पर बड़े फ़ैसले ले सकती है।
 
पीएस कृष्णन- एक दक्षिण भारतीय ब्रह्मण की भूमिका
वी.पी. सिंह ने जिस मंत्रालय के ज़िम्मे कमीशन की सिफारिश को अंतिम रूप देने का काम सौंपा था, उसकी लेटलतीफी देखते हुए उन्होंने उसे रामविलास पासवान के श्रम व कल्याण मंत्रालय में डाल दिया। उस समय यह मंत्रालय काफी बड़ा हुआ करता था और अल्पसंख्यक मामले,आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय व अधिकारिता, श्रम, कल्याण सहित आज के छह मंत्रालयों को मिलाकर एक ही मंत्रालय होता था। श्री पासवान की स्वीकारोक्ति है कि तत्कालीन सचिव पी.एस. कृष्णन, जो दक्षिण भारतीय ब्राह्मण थे; ने इतने मनोयोग से प्रमुदित होकर काम किया कि दो महीने के अंदर मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को अंतिम रूप दे दिया गया।
 
दुनिया में आरक्षण से बढ़कर ऐसी कोई कल्याणकारी व्यवस्था नहीं बनी, जिसने इतने कम समय में अहिंसक क्रान्ति के ज़रिये समाज के इतने बड़े तबके को गौरवपूर्ण व गरिमापूर्ण जीवन जीने में इससे ज़्यादा लाभ पहुँचायी हो, जिससे इतनी बड़ी जमात के लोगों के जीवन-स्तर में क़ाबिले-ज़िक्र तब्दीली आई हो। सरकार की क़ुर्बानी देकर आने वाली पीढ़ियों की परवाह करने वाले जननेता वी.पी., शरद, लालू जैसी शख़्सियतों के बारे में ही राजनीतिक चिंतक जे. एफ. क्लार्क कह गये : “एक नेता अगले चुनाव के बारे में सोचता है, जबकि एक राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में।
(लेखक संप्रति जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ में शोधार्थी हैं)

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