नौकरशाही डॉटइन के अंतरराष्ट्रीय मामलों के सम्पादक
मुस्लिम आरक्षण का पुरजोर विरोध करते हुए बता रहे हैं कि अल्पसंख्यवाद की राजनीति ने मुसलमानों को कमजोर किया है.
2014 के लोकसभा चुनावों के पहले अनेक मुस्लिम और हिंदू राजनीतिज्ञ मुसलमानों के लिए शिक्षा और नौकरियों में रिजर्वेशन की मांग कर रहे हैं.मुसलमानों को महब के आधार पर आरक्षण देने का मतलब यह हुआ कि अगर कोई भी व्यक्ति इस्लाम स्वीकार कर ले तो वह इस आरक्षण का लाभ उठाने का हकदार हो सकता है.
केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने पिछले दिनों कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि मुसलमानों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने के सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट मान्यता दे देगा. इसके पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी मुस्लिम आरक्षण का समर्थन किया था. उन्होंने यहां तक कहा था कि इसके लिए अगर संविधान में संशोधन की जरूरत पड़े तो वह भी किया जाना चाहिए.
इस तरह की आवाजें भारत के कई हिस्सों से उठने लगी हैं.
मई में मालेगांव से हजारों मुसलमानों ने मुम्बई तक मार्च किया और मांग की कि मुसलमानों को 20 प्रतिशत आरक्षण दिया जाये. इस बीच महमूदुर्रहमान की अध्यक्षता वाली महाराष्ट्र सरकार की एक कमेटी ने सिफारिश की है कि मुसलमानों को 6-7 प्रतिशत आरक्षण दिया जाये. इसी तरह चेन्नई में मुस्लिम मुनित्रकडगम के कार्यकर्ताओं ने मुस्लिम आरक्षण के लिए धरणा दिया. उधर बहुजन समाज पार्टी की प्रमख मायावती ने भी इस मांग के समर्थन अपनी रजामंदी जाहिर कर दी है.
यह बहुत दिनों पहली की बात नहीं जब ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस ए मुशावरत ने कांग्रेस की सरकार से कहा था कि वह मुस्लिम आरक्षण के प्रति सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपना रवैया स्पष्ट करे ताकि धर्मनिरपेक्षता के प्रति उसकी सोच स्पष्ट हो सके. इसके अलावा अन्य मुस्लिम संगठन जैसे ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लेमीन, पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया और जमियत उलमा ए हिंद ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये थे.
मुसलमानों के हित में नहीं अल्पसंख्यकवाद
कोई भी यह नहीं कह रहा कि इस तरह की मांगों का इस्लाम से कोई मतलब है बल्कि इस मांग को जायज ठहराने के पीछे उनका तर्क है कि यह आरक्षण अल्पसंख्यक के नाम दिया जाये. हालांकि यह जानना चाहिए कि इस्लाम के नाम पर दिया गया आरक्षण मुसलमानों के हित में नहीं है क्योंकि यह भारत के धर्मनिरपेक्षता के उसूलों के खिलाफ है. व्यावहारिक सच्चाई तो यह है कि भारत के मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं. भारत में मुसलमानों की संख्या दुनिया के सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देशों में दूसरे-तीसरे नम्बर पर है. भारत में मुसल्मानों की संख्या पाकिस्तान के करीब करीब बराबर है. 17 करोड़ आबादी वाले समुदाय को अल्पसंख्यक कहा भी नहीं जा सकता. मुसलमानों को सिर्फ इसलिए अल्पसंख्यक कहा जाये कि उनकी आबादी हिंदुओं की तुलना में कम है, यह उचित नहीं है.
दर असल मुस्लिम नेतृत्व अल्पसंख्यक के नाम पर राज्य से लाभ लेने की कोशिश करता रहा है और उनका यही अल्पसंख्यकवाद मुसलमानों की जड़ता का एक बड़ा कारण है. ये वही मुस्लिम नेता हैं जो मुसलमानों के अशराफ तबके या ऊंची जाति से ताल्लुक रखते हैं. यही लोग ओबीसी मुसलमानों को मिलन वाले आरक्षण के खिलाफ हैं. और यही कारण है कि पिछले दिनों लखनऊ में पिछड़ी जाति के मुसलमानों ने एक मीटिंग की और इसमें उन पार्टियों का विरोध करने का फैसला लिया जो अशराफ मुसलमानों के एजेंडे पर काम कर रही हैं या धर्म के आधार पर मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात करती हैं.
कुछ हिंदू राजनेता हैं जो बजाहिर मुस्लिम मुद्दों की बातों का उछाल करके मुसलमानों का वोट लेना चाहते हैं. महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता हसन दालवी ने ऐसे नेताओं को आगाह किया है कि ऐसे प्रयास से भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचायेगा. उनका कहना है कि मुसलमानों को अल्पसंख्यक के नाम पर धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले दर असल मुसलमानों को धर्मनरपेक्ष विरोधी बनाने में लगे हैं क्योंकि जनतंत्र में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार मिलना चाहिए न कि कोई विशेष सुविधा.
रंगनाथ मिश्रा आयोग और सचर कमेटी ने भी अल्पसंख्यकवाद को ही बढ़ावा दिया है. भारत को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो जनता के लिए उसकी आस्था या जाति से ऊपर उठ कर काम करन का साहस दखा सके. जिस अफर्मेटिव एकशन पर अभी काम हो रहा है वह दर असल आधी सद पहले किये जाने वाले उपाय थे, न कि आज के परिप्रेक्ष्य में उठाये जाने वाले कदम. एक साहसिक नेता ही एससी एसटी को दिये जाने वाले रिजर्वेशन या जाति आधारित रिजर्वेशन की समीक्षा कर सकता है. यह जानने की जरूरत है कि सामाजिक और आर्थिक न्याय से जुड़ी नीतियों को लागू करने के लिए और भी कई बेहतर रास्ते हैं.
बंद हो धर्म व जाति के नाम पर आरक्षण
इस तरह के व्यापक दृष्टि वाले नेतृत्व का सामने आना लगभग अंसभव है पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत का बहुत बड़ा वर्ग युवाओं का है जो 25 वर्ष आयु वर्ग का है और जिसकी पहचान धर्म या जाति से नहीं बल्कि मात्र भारतीय के रूप में है. यह ऐसा वर्ग है जो जाति या धर्म के नाम पर वोट नहीं डालेगा जैसा कि उके मां-बाप करते रहे हैं.
इस तरह के संभावित कदमों में रिजर्वेशन का आधार एकल परिवार की आय हो सकती है. यह मुश्किल भी नहीं है इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे यानी बीपीएल को आधार बनाया जा सकता है. जबकि जाति या मजहब के आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण समाप्त किया जाना चाहिए ताकि तमाम समुदाय भावनात्मक स्तर पर आजादी महसूस कर सकें और अपने भरोसे आगे बढ़ सकें. हां संसद में महिलाओं के आरक्षण की बात जरूर आगे बढ़ाई जा सकती है लेकिन इसकी मयाद भी तय होनी चाहिए.