अगर जातिवाद का विष हमारे मन और शरीर को इतना जहरीला बना दे कि हम कथित नीची जाति के लोगों को शवयात्रा के लिए भी रास्ता न दें तो ऐसे समाज के मुंह पर थूक देना भी कम है.
मध्य प्रदेश के पनागर तहसील में दलित समुदाय के लोगों को कथित तौर पर खुद को ऊंची जाति होने का दावा करने वाले लोगों ने एक दलित मृतक की शवयात्रा को अपने खेतों से गुजरने से रोक दिया. नतीजतन दलितों को शव ले कर भरे तालाब से गुजर का जाना पड़ा.
एक ऐसी ही दूसरी घटना ओडिशा के कालाहांडी में देखने को मिली जब बालासोर में एक दलित को अपनी पत्नी के शव को ले जाने के लिए शव वाहन नहीं दिया गया, नतीजतन उसने शव को अपने कांधे पर उठाया और 12 किलो मीटर की दूरी पैदल तय की.
हम कहते-सुनते आये हैं कि जातिवाद आधुनिक सभ्यता पर कलंक है. हम इसे मिटाने के प्रयास को ढ़िंढ़रा पीटते हैं पर 21वीं सदी में इसका क्रूरतम चेहरा अकसर देखने को मिलता है.
छुआछूत, जातीय या धार्मिक भेद-भाव, भाषा और लिंग के नाम पर किसी तरह के शोषण, प्रताड़ना के खिलाफ हमारे संविधान में सख्त प्रावधान है. इन सब बातों के बावजूद हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे क्रूर, निर्दई और असभ्य आचरण अब भी पेश करते हैं जिसका उदाहरण दुनिया के किसी देश में शायद ही मिले.
हमें किस संस्कृति पर है दंभ ?
हम अपनी सभ्यता, संस्कृति पर बेकार का दंभ भरते हैं, जब हम अपने ही तरह के हाड़-मांस के लोगों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते हैं.
दर असल जातीय विद्वेष, घृणा और अमानवीता किसी संविधान, किसी कानून से खत्म नहीं की जा सकती, जब तक कि हम अपने मस्तिष्कों में पड़ी सडांध को खत्म नहीं करते. लेकिन शर्मनाक पहलू तो यह है कि इस जातिवादी घृणा को कथित तौर पर खुद को ऊंची जाति कहने वाले कुछ मुट्ठी भर लोग ही मजबूत करते हैं.
सदियों से इस जातिवादी जहर के उन्मूलन का संघर्ष चल रहा है लेकिन इसके बावजूद हम अब तक ऐसा समाज बनाने में नाकाम रहे हैं जहां हर इंसान बराबरी का दर्जा रखता हो.