आज से चार वर्ष पहले 2012 में रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की शव यात्रा में हजारों लोगों ने पटना को बंधक बना लिया था, ऐसा लगा था कि मुख्यमंत्री आवास पर आक्रमण कर दिया जायेगा. तब पुलिस ने वादा किया था कि आतताइयों को खोज-खोज कर सजा दिलायी जायेगी. इस मामले में क्या किया गया सरकार को बताना चाहिए.
यह लेख इर्शादुल हक ने 4 जून 2012 को फेसबुक पर लिखा था. चार साल बाद अपने पाठकों के समक्ष हम फिर इस आलेख का सम्पादित अंश पेश कर रहे हैं.
ब्रह्मेश्वर मुखिया की शवयात्रा दर असल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अण्णे मार्ग स्थित सरकारी आवास को जला देने की साजिश जैसी थी. पर यह घटना इस लिए नहीं हो सकी कि इसके लिए पुलिस महानिदेशक अभ्यानंद के नेतृत्व वाली पुलिस ने जांबाजी से काम लिया, बल्कि मौके पर मौजूद कुछ सुलझे कनीय पुलिस अधिकारियों ने सूझबूझ से काम लेकर इस संभावित घटना को होने से रोक लिया.
सीएम आवास के पहरेदारों को खदेड़ा
इस संभावित घटना की तहकीकात बताती है कि शवयात्रा में शामिल उन्मादी युवाओं की भीड़ देशरत्न मार्ग से होते हुए अण्णे मार्ग तक पहुंच चुकी थी. यह उन्मादी भीड़ मुख्यमंत्री आवास के पहरे में लगे जवानों को खदेड़ कर मुख्यमंत्री आवास की चहारदीवारी तक पहुंच चुकी थी. जैसे ही यह भीड़ बेली रोड को छोड़ती हुई हाइअलर्ट वाले संवेदनशील इलाके मुख्यमंत्री आवास की तरफ मुड़ी पुलिस के कनीय अधिकारी अपने आला अधिकारियों को पल पल की सूचना देते रहे और अतिरिक्त बल तथा वज्र की मांग करते रहे पर पुलिस के आला नेतृत्व के आदेश ने उन्हें पूरी तरह से पंगू बना दिया था. रिकार्ड बताते हैं कि पटना के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उन्हें भीड़ को नियंत्रित तक करने का आदेश देने से भी बचते रहे. पर कुछ कनीय अधिकारियों ने अपनी जान से खेल कर इस अन्होनी घटना को होने से बचा लिया.
आरा-पटना सीमा पर कोयलवर पुल के पास जैसे ही मुखिया की शवयात्रा पहुंची तो पटना के कुछ पुलिस अधिकारी अपने पचास जवानों के साथ इस यात्रा को मॉनिटर करते हुए पटना तक ला रहे थे. आला अधिकारियों ने अपने कनीय अधिकारियों को यह आदेश दे रखा था कि किसी भी कीमत पर शवयात्र में शामिल भीड़ को नियंत्रित करने की कोशिश न की जाये. यहां तक की जगह जगह पुलिस पोस्ट पर मौजूद जवानों को भी अपना पोस्ट छोड़ कर पीछे हट जाने का आदेश फोन के द्वारा दे दिया गया था. पुलिस इस उन्मादी भीड़ के सामने बेबस बनी रही. बिहटा में आगजनी के बाद पुनाईचक और हड़ताली मोड़ पर सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर रहे लोगों की गतिविधियों से यह स्पष्ट था कि भीड़ की नियत ठीक नहीं थी. इसके बावजूद अभ्यानंद ने जिस तरह से अपनी पुलिस को पंगू बना दिया था, ऐसी मिसाल नीतीश काल में नहीं मिलती.
आखिर पुलिस महानिदेशक चाहते क्या थे.
पुलिस महानिदेशक अभ्यानंद एक तरफ उन्मादी भीड़ को छुट्टा छोड़ कर रणवीर सेना जैसे गैरकानूनी संगठन के सरगना ब्रह्मेश्वर मुखिया को शहीद बनाने में लगे थे, वहीं वह ऐसा करके अपनी हीरोइक छवि का निर्माण भी करना चाह रहे थे.
पुलिस महानिदेशक अभ्यानंद की भूमिका
जब पुलिस महानिदेशक की हैसियत से अभ्यानंद यह कहते हैं कि उन्मादी भीड़ को नियंत्रित करना खतरे से खाली नहीं था. इसलिए उनके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की गई. सवाल यह है कि अभ्यानंद ने आरा में इस उन्मादी भीड़ के आतंक को देख लिया था. वह पहले ही आरा में आगजनी और उत्पात मचा चुके थे. ऐसे में एक सुलझे हुए पुलिस नायक की भूमिका निभाने के बजाये सरकार की इज्जत पर बट्टा लगाने के लिए उन्होंने ब्रह्मेशवर मुखिया के बेटे इंदुभूषण को यह साफ कहा कि मुखिया का अंतिम संस्कार खोपिरा( उनके पैतृक गांव) में न कर के बक्सर में किया जाये. इतना ही नहीं शवयात्रा के लिए उन्होंने मुखिया के परिजनों को ट्रक का काफिला भी देने की घोषणा कर दी. फिर बाद में आखिर किस कारण अंतिम संस्कार पटना में करने की इजाजत दी गई, जबकि उन्हें यह पता था कि लोग उग्र हो चुके हैं और आरा में तांडव मचा चुके हैं?
यह गंभीर सवाल है. क्या ब्रह्मेश्वर मुखिया के समर्थकों को खुश करके वह अपनी ही नीतीश सरकार को चुनौती देने पर आमादा हैं? अगर ऐसा ही है तो एक नौकरशाह की हैसियत से अभ्यानंद का यह एक आत्मघाती कदम है. नीतीश सरकार को यह समझने की जरूरत है कि उनके ही अधिकारी के चलते उनकी सरकार की छह साल से बनी बनाई छवि महज एक दिन में तबाह हो गई.
पर सवाल यह है कि नीतीश कुमार ने यह होने ही क्यों दिया. इस बात का जवाब सिर्फ इतना ही है कि नीतीश अपने सामंती प्रवृति के नौकरशाहों के शिकंजे में ऐसे ही घिरे हुए हैं जैसे लालू प्रसाद विगत पंद्रह सालों तक घिरे रहे हैं. नीतीश अपनी राजनीतिक शक्ति को तो जानते हैं पर नौकरशाही के सामने अपनी बेबसी के किस्से किसको सुना सकते हैं.