नौकरशाही डॉट इन के देहरादून ब्यूरो प्रमुख जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’ उत्तराखंड की आपदा पर सोशल मीडिया में आई प्रतिक्रिया का संकलन पेश कर रहे हैं.
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा तमाम विरोधों के बावजूद वे पहाड़ के मुख्यमंत्री की कुर्सी झटकने में कामयाब रहे। जब से बहुगुणा जी ने कार्यभार संभाला तभी से राजनीतिक, प्राकृतिक व आर्थिक आपदाओं से राज्य त्रस्त है। पिछली बार की उत्तरकाशी व उखीमठ की आपदा से वे अभी उबरे भी नहीं कि इस बार की आपदा ने अभी तक के 100 वर्षों का रिकार्ड ध्वस्त कर दिया.
हाल ही में जहां उनकी कुर्सी पर आपदा के बादल घिर गये थे कि तभी एक ऐसी बड़ी आपदा आ गई कि उनकी स्वयं की आपदा गायब हो गई। विधायकों ने अपना अभियान पीछे खींच लिया और उनकी कुर्सी की समय सीमा आगे बढ़ गई इस लिहाज से बहुगुणा जी, भाग्यशाली तो है ही लेकिन उनके जैसा भाग्यशाली यह पहाड़ी राज्य नहीं है।
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आपदा ने अपने पुराने रिकार्डों को ध्वस्त करते हुए पहाड़ी राज्य को ऐसी विभीषिका में डाल दिया है जहां से उबरने में उसे दशकों लगेंगे।
भूगर्भ वैज्ञानिक डा. एस.पी.सती फेसबुक में अपनी भावनायें व्यक्त करते हुऐ लिखते है कि ’’प्रकृति का यह ताडंव इस पैमाने पर पहली बार देखा, इतिहास के झरोखे से एक नजर डालें तो सन् 1894 में बिरही बाड़ में भीषण तबाही अलकनन्दा-गंगा घाटी में हुई थी, उसके बाद छोटी-बड़ी 150 बाढ़ की घटनायें इन नदियों के ऊपरी क्षेत्रों में हो चुकी है जिनमें 1978 की कानोडिया उत्तरकाशी, 1971 की कोंन्था- मन्दाकिनी और इन दो घटनाओं के कुछ पहले और 1894 की विभीषिका के बाद शायद सबसे भीषण 1970 की बेलाकूची गौना बाढ।
चार कारण
वर्तमान की बाढ़ के सन्दर्भ में इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह अब तक ज्ञात सभी आपदाओं में सर्वाधिक विनासकारी रही है। डा. सती इसके चार प्रमुख कारण गिनाते है पहला यह कि इस वर्ष जाड़ों में औसत से अधिक बर्फ का गिरना है। इसकी वजह से गमियों में बर्फ अधिक पिघलने से नदियों का आकार वैसे ही बढ़ा हुआ था। दूसरा कारण समय से पहले मानसून का आना, मानसून के समय से पहले आने की वजह से ऊपरी क्षेत्रों में जो बर्फ पूरी नहीं पिघली थी वह बारिस में यकायक पिघल गई इससे ऊपरी क्षेत्रों में भी असामान्य रूप से अधिक तबाही हुई। तीसरा कारण बड़े पैमाने पर बन रही जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण कार्य के मलबा नदियों के किनारे फंेका गया। परियोजनाओं के विस्फोटो से सारे पहाड़ जर्जर हो चुके थे। बरसात में सारा मलबा और जर्जर पहाडि़यां नदियों में आ गई जिससे गाद मिश्रित जल का आयतन कई गुना बढ़ गया। चैथा कारण नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर अतिक्रमण कुछ दशकों में बहुत बढ़ गया था व यहां बस्तियों में पनप गई थी।
इसके अतिरिक्त बड़े पैमाने पर पहाड़ों को काटकर सड़कों के निर्माण ने भी इस विभीषिका की भूमिका रच दी थी।
समीर रतुड़ी लिखते है कि गांव-गांव तक सड़क निर्माण को सरकारें विकास का मानक मान रही है। जगमोहन जयाड़ा का विचार है कि उत्तराखण्ड की समस्त नदियों को इको सेंसिंटिव जोन के अन्तर्गत लाया जाना चाहिये व नदियों के इर्द-गिर्द निर्माण कार्याें पर रोक लगाई जानी चाहिये।
मनीष मेहता ने अपनी भावनायें कुछ यूँ प्रकट की –
हे विधाता आखिर तू चाहता क्या है?
क्यों हो रही देव भूमि में ये विनाश लीला,
क्यों दफन हो रहे हैं निर्दोष प्राणी,
आखिर क्यों दरक रहे है ये पहाड़,
उदय पंत लिखते है कि धारचुला इलाके में बादल फटने से आई.टी.वी.पी और एन.एच.पी.पी के कैम्प बह गये है। यहां की सूचनायें अभी बाहर नहीं आ पायी है। नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह लिखते है कि 48 घंटो से भी अधिक समय तक सहमा रहा हूं कि अब बहा नैनीताल और तब बहा नैनीताल, 1860 की पुनरावृत्ति को अब कोई नहीं रोक सकता। हमारी अब तक की सरकारों की करतूतों का फल हमारे स्थानीय निवासियों ने ही नहीं भोगा, उन्होनें झेला भी है। हमें कोई बताने वाला, रोकने-टोकने वाला नहीं होगा और हम गलत जगहों पर बस जायेंगे, मकान बना लेंगे। बगैर भूगर्भीय परिस्थितियों को ध्यान मे रखे डायनामाइट लगा कर और जेसीबी मसीनों से सड़कें और परियोजनायें बनायेंगे तो ईश्वर भी हमें कब तक और क्यों बचायेगा।
दीप लिखते है कि प्राकृतिक आपदा मे फंसे भाइयों, राहत के लिए सरकारी मदद की बाट न देखो, अपने आस-पास बेघर हुऐ लोगो को अपने घरों में शरण दो,रेता-बजरी के ठेकेदारों और स्टोन क्रेसर मालिकों तथा बांधों के ठेकेदारों को पकड़ कर मुर्गा बनाओ.
अमेरिका से सुषमा नैथानी लिखती है कि हिमालयी क्षेत्रों को बिना संरक्षित किये तबाही को बचाना नामुमकिन है। गे्रंड केन्यान और दूसरी प्राकृतिक साइटस की तरह हिमालय मे भी पर्यटन के नाम पर निर्माण समाप्त होना चाहिये।
प्रसिद्ध साहित्यकार एवं कवि मंगलेश डंबराल लिखते है कि भीषण बारिश, बाढ़ और भूस्खलन ने उत्तराखण्ड के मध्य हिमालयी भाग को तहस-नहस कर दिया है। जल प्रलय के दर्दनाक दृश्यों को देखकर एक तरफ रूलाई आती है तो दूसरी तरफ नेताओं, प्रापर्टी डीलरों, ठेकेदारों और नौकरशाहों के खिलाफ क्रोध की लहर उठती है जो विकास के बुलडोजरों से पहाड़ को रौंदते आये है। उत्तरकाशी मे हमारे प्रिय वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी का बहुत प्रेम से बनाया घर इस बार प्रचंड पानी की भेंट चढ़ गया। जगूड़ी का घर इसी तरह बहुत साल पहले भी ढहा था। उनका जीवन बार-बार बसने और उजड़ने की कहानी जैसा है। इस समय जगूड़ी की ही एक कविता “पेड़“ की पंक्तियां याद आती है।
नदियां कहीं का नागरिक नहीं होती,
और पानी से ज्यादा कठोर और काटने वाला
कोई दूसरा औजार नहीं होता,