एनडी टीवी के रवीश कुमार अपने इस लेख में नीतीश कुमार के साहस का उल्लेख करते हुए सवाल खड़े कर रहे हैं कि क्या भाजपा के जातिवादी हिंदुत्व को रोकने के लिए नीतीश, लालू, मोलायम और मायावती एक होंगे.
नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री नहीं हैं। उनके इस्तीफ़ा देने के फ़ैसले को कई प्रकार से देखा जा रहा है। मगर इन देखने वालों को आप भी एक प्रकार से देख सकते हैं। मीडिया या सोशल मीडिया पर नीतीश के आलोचकों के सरनेम देखिये। आप समझ सकेंगे कि क्यों इनमें ‘जात पात से ऊपर उठ चुके’ अपर कास्ट की बहुलता अधिक है।
धरातल पर कुछ तो हुआ होगा जो अगड़ी जातियों को नागवार गुज़र रहा है। अगर ऐसा है तो नीतीश इस तबके को अब वापस नहीं ला सकते हैं। आख़िर क्यों अगड़ी जातियों को बिहार का देखा हुआ विकास नहीं पचा और गुजरात का सुना हुआ जंच गया। लोकसभा के चुनाव में बिहार ने नीतीश कुमार को अस्वीकार किया है। नीतीश का समावेशी विकास का माडल उन्हीं के शब्दों में साम्प्रदायिक एकीकरण के आगे नहीं टिक सका, शायद इसलिए भी कि उनके इस मॉडल में विचारधारा का तत्व मोदी के मॉडल की तुलना में बेहद कमज़ोर था या था ही नहीं।
कई लोग कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का औपचारिक स्वागत करना पड़ता इसलिए कुर्सी छोड़ कर भाग गए। मेरे फ़ेसबुक पेज पर ऐसा लिखनेवालों और एसएमएस भेजनेवालों में सवर्ण ज़्यादा हैं। जिस तरह से सवर्ण नीतीश को जातिवादी ठहरा रहे हैं मुझे जात पात के समाप्त हो जाने के स्वर्ण युग का भ्रम होने लगा है। खैर मोदी के स्वागत के डर से इस्तीफ़े की दलील में झोल है।
नीतीश कुमार ने कहा है कि एक साल तक पार्टी का काम कर उसे मज़बूत करेंगे और बहुमत प्राप्त करेंगे। जेडीयू ने भी कहा है कि अगला चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। मेरे ख्याल से नरेंद्र मोदी तब तक तो प्रधानमंत्री रहेंगे ही! अगर यही डर होता तो नीतीश राजनीति से सन्यास ले लेते। इसलिए इस बात में कोई ख़ास दम नहीं लगता कि प्रोटोकोल के तहत नरेंद्र मोदी का स्वागत करना पड़ता इसलिए नीतीश ने इस्तीफ़ा दिया। क्या प्रोटोकोल के तहत नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह का अपने राज्य में स्वागत नहीं करते थे।
कहीं, नीतीश के डर से ज़्यादा बीजेपी नेताओं का सपना तो नहीं था कि स्वागत कराकर नीतीश के चेहरे की लाली देखने का मज़ा लिया जाएगा।
इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश का इस्तीफ़ा बहस योग्य नहीं है। नीतीश से इस्तीफ़ा मांगा गया तो दे दिया। राजनीति में नैतिकता प्रतीकात्मक ही होती है। कोई संदेश देने के लिए ही दंगों के बाद भी इस्तीफ़ा नहीं देता है और कोई दुर्घटना हो जाने पर दे देता है। नरेंद्र मोदी और अखिलेश यादव ने नैतिक ज़िम्मेदारी तो ली मगर इस्तीफ़ा नहीं दिया। बिहार विधानसभा के चुनाव में एक साल रहते इस्तीफ़ा देना आसान नहीं है।
हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल की तरह एक दिन इस फ़ैसले पर अफसोस करना पड़ जाए, लेकिन यह क़दम इतना भी खोखला नहीं है। इससे पहले के दो लोकसभा चुनावों में जब भारत की जनता यूपीए को समर्थन दे रही थी, तब गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी रही। उसके इस फ़ैसले में सिर्फ विकास ही नहीं छह करोड़ गुजरातियों के नाम पर किया गया एकीकरण या ध्रुवीकरण भी था, लेकिन बिहार की जनता ने नीतीश का साथ नहीं दिया।
अहं की लड़ाई का तत्व तो मोदी बनाम सोनिया में भी था। एक पत्रकार टीवी चैनल पर कह रहे थे कि आज बिहार का सबसे बड़ा नेता एक गुजराती है।
नीतीश इस्तीफ़ा नहीं देते तो उनकी सरकार की स्थिरता के बारे में क्या क्या नहीं कहा जाता या क्या क्या नहीं कहा जा रहा था। इस्तीफ़े की मांग तो की ही जा रही थी। कहा जा रहा था कि बग़ावत हो जाएगी, बीजेपी छोड़ेगी नहीं आदि आदि। यह साफ़ है कि दोनों के बीच अहं का टकराव है और दोनों तरफ़ से है।
वैचारिक टकराव को भी स्वीकार किया जाना चाहिए। इसलिए बिहार में सत्ता बदलनी ही थी। नीतीश दो सौ रैलियां करके भी बिहार को थाम नहीं सके। लेकिन अब बात इस्तीफ़ा क्यों दिया से आगे निकलकर देने के बाद जो किया उस पर होनी चाहिए।
मुसहर जाति राज्य और देश की ग़रीबतम जातियों में से एक है। इस जाति का ज़्यादातर हिस्सा ग़रीबी रेखा से नीचे हैं और भूमिहीन है। चूहा खाने वाली इस ग़रीबतम जाति की दुर्दशा पर क्या क्या नहीं कहा गया है। इस जाति के जीतन राम माँझी को नीतीश ने मुख्यमंत्री बनाया है। प्रतीक के स्तर पर यह एक साहसिक फ़ैसला है। बीजेपी को रिमोट कंट्रोल की बात से इतना गुरेज़ होता तो वह संघ के दरवाज़े नेता से लेकर मंत्री के चयन तक के लिए नहीं जाती।
भारतीय राजनीति में रिमोट एक सच्चाई है। यह सच्चाई बीजेपी से लेकर हर दल में है। क्या बादल या पासवान की पारिवारिक पार्टी में रिमोट कंट्रोल नहीं है। क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में नए नेता के चुनाव में दखल नहीं रखेंगे। विधायकों के नाम पर किसका फ़ैसला चलेगा सब जानते हैं। वे भी जब आनंदीबेन को मुख्यमंत्री चुनेंगे तो इसे प्रतीक के स्तर पर बढ़ा चढ़ा कर बताया जाएगा।
नरेंद्र मोदी खुद अपने चाय बेचने और पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि के प्रतीकों का इस्तमाल जमकर करते रहे हैं। इसलिए प्रतीक के स्तर पर ही सही जीतन राम माँझी का मुख्यमंत्री बनना ऐतिहासिक है। वे हारे हुए हैं, मगर हार जाने से ही राजनीतिक उपयोगिता और अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाते। इस लिहाज़ से अरुण जेटली भी हारे हुए हैं और उन्हें मंत्री नहीं बनना चाहिए।
यही क्या कम है कि बीजेपी नीतीश पर जातिवादी राजनीति का आरोप तो नहीं लगा पा रही है।
इस फ़ैसले ने पार्टी पर नीतीश की पकड़ को स्थापित तो किया ही है उनका आत्मविश्वास भी ज़ाहिर किया है। एक ऐसे समय में जब दिल्ली में प्रतिकूल और आक्रामक सत्ता हो अपनी कुर्सी किसी और को सौंपने का भरोसा करना सिर्फ एक कमज़ोर चाल नहीं है। एक पार्टी के रूप में जेडीयू का इस फ़ैसले को स्वीकार करना भी कम बड़ी बात नहीं है। जितने भी विधायक हैं और जब तक इस फ़ैसले के साथ हैं।
इस चुनाव में मिली भयंकर हार के बाद अपनी पार्टी की विचारधारा और नेता में भरोसा रखना बता रहा है कि राजनीति में सबकुछ ख़रीद बेचकर नहीं किया जा सकता। और बग़ावत हो भी जाए तो जिस राज्य में रघुवंश प्रसाद सिंह जैसा बेहतरीन सांसद हर जाए वहां इसमें कोई हैरानी की बात भी नहीं।
एक ऐसे समय में जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी की प्रचंड कामयाबी के बाद विपक्ष मनौवैज्ञानिक रूप से बिखर गया है, नीतीश सत्ता छोड़कर विपक्ष बनाने के लिए संघर्ष करने जा रहे हैं। हार कर भी उसी रास्ते पर चलने का जोखिम उठा रहे हैं। लालू यादव जेल जाने पर हर बार सत्ता और पार्टी अपने परिवार को ही सौंपते रहे हैं, मुलायम और मायावती भी जो नहीं सोच सकते नीतीश ने करके दिखा दिया। रिमोट के नाम पर ही सही वे पार्टी में किसी और का भी नेतृत्व स्वीकार कर सकते हैं।
अब यहां सवाल कुछ और भी है। क्या नब्बे के दशक की तरह कमंडल को रोकने की ताक़त मंडल में बची है। क्या नरेंद्र मोदी के हिन्दुत्ववादी, जातिवादी और विकास की बहुआयामी राजनीतिक पैकेज का मुक़ाबला जातिगत अस्मिता, दलित पिछड़ा एकता, समाजवादी धारा और विकास की राजनीति के पैकेज से किया जा सकता है। क्या इस चुनाव का यह जनादेश भी है कि सवर्ण जातियां दलित पिछड़ी जातियों के साथ स्वाभाविक रूप से कभी नहीं रह सकती। कभी विकास तो कभी हिन्दुत्व के बहाने अलग होती रहती हैं।
लिहाज़ा इसकी जगह दलित पिछड़ों की एकता क़ायम की जाए। उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने मुलायम को मुख्यमंत्री बनाकर कमंडल को रोक दिया था। बाद में यह प्रयोग तुच्छ राजनीतिक चालबाज़ियों की भेंट चढ़ गया। क्या मायावती मुलायम एक होंगे। क्या नीतीश लालू एक होंगे। बीजेपी ने भी तो इस चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दों को किनारे कर येदुरप्पा से लेकर पासवान तक से हाथ मिलाकर जातियों का बेहतर गठबंधन करके दिखा दिया।
क्या लालू नीतीश मुलायम मायावती अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ऐसा कर पायेंगे। यह सब इतना आसान नहीं है। नीतीश वो करने निकले हैं जिसे करने में लंबा रास्ता तय करना पड़ सकता है। एक और हार मिल सकती है। लालू यादव और नीतीश इसी बात पर बिखर जायेंगे कि नेता कौन होगा। जबतक बिखरे रहेंगे बीजेपी या पिछड़े नरेंद्र मोदी की जातिगत और हिन्दुत्व की व्यूह रचना से मात खाते रहेंगे।
एनडीटीवी के रवीश कुमार अपने इस लेख में बता रहे हैं कि नीतीश ने साहस किया है पर क्या वह भाजपा के जातिवादी हिंदुत्व के चक्रव्यूह को तोड़ पायेंगे और क्या इस लड़ाई में लालू,मुलायम और मायावती साथ हो सकेंगे?
सामने के पाले में एक पिछड़ा प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचा है उसके ख़िलाफ़ कोई भी जातिगत गठबंधन की रणनीति दलित पिछड़े तबके में रोचक और अप्रत्याशित राजनीतिक संघर्ष और बिखराव को जन्म देगी।
इसके लिए ज़रूरी है कि मंडल के दौर के बाद दलित और पिछड़ों में तैयार हुआ मध्यमवर्ग इस प्रयोग में साथ आए। वो तो तब भी बीजेपी के साथ गया जब रामदेव और सीपी ठाकुर जैसे नेता आरक्षण का विरोध कर रहे थे। संजय पासवान जैसे नेता आरक्षण पर श्वेत पत्र लाने की बात कर इसे आर्थिक आरक्षण में बदलाव की बात कर रहे थे। बीजेपी ने संसद में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले का खुला विरोध किया था। इसके बाद भी बीजेपी को दलितों पिछड़ों का साथ तो मिला ही। इसलिए जीतन राम माँझी कांग्रेसी दौर के प्रतीक की तरह बनकर न रह जायें यह नीतीश को देखना होगा। मंडल की राजनीति के प्रतीक प्रतीक ही न रह जायें।
नीतीश कुमार को देर से ही सही संगठन की ज़रूरत का ख्याल आया है। नरेंद्र मोदी ने बीजेपी संघ और अन्य धार्मिक और योग सिखाने वाली पेशेवर संस्थाओं में समाजवादियों की इस कमज़ोरी का भी खूब लाभ उठाया है। यह नीतीश की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही कि उन्होंने जेडीयू को बिहार के युवाओं की पार्टी नहीं बनाई।
विकास की अमूर्त राजनीति के साथ साथ वे अपनी पार्टी को फ़ेसबुक और ट्वीटर जनरेशन के लिए खोलते या जोड़ते तो नतीजा कुछ और हो सकता था। बिहार के विकास को नीतीश ने कटी पतंग की तरह छोड़ दिया जबकि नरेंद्र मोदी ने पूरे गुजरात को अपने प्रति विरोध और विकास की राजनीति में सहयात्री बना लिया। गुजराती अस्मिता के नाम पर पहचान की राजनीति की नई पैकेजिंग की। नीतीश कुमार गत्ते की पैकेजिंग के भरोसे रह गए। बिहारी अस्मिता नहीं उभार पाए। नीतीश कुमार को ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ वैचारिक लड़ाई से मोदी को नहीं रोक सकते।
अगर मोदी चार किलोमीटर सड़क बनाते हैं तो मुलायम और नीतीश को दस किलोमीटर सड़क बनानी होगी। अपनी सरकार के काम के रफ़्तार को इतना बढ़ा देना होगा कि लोग उसे होता हुआ देख सके। नीतीश घूम-घूम कर राहुल गांधी की तरह अध्ययन न करें तो अच्छा रहेगा बल्कि सरकार की कमियों को वहीं का वहीं फिक्स करा दें तो ज़्यादा विश्वास हासिल कर सकेंगे। लोगों को लगना चाहिए कि बिहार की सरकार वाक़ई बुलेट ट्रेन हो गई है और नीतीश उसके ड्राईवर नहीं पायलट हैं। इंजीनियर नीतीश कुमार को सोशल के साथ-साथ इस इंजीनियरिंग में भी कमाल दिखाना होगा। जितना किया है उससे ज़्यादा करना होगा और उससे भी ज़्यादा प्रचार तो करना ही होगा।
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