नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद कहा कि वह मांझी सरकार के फैसलों की समीक्षा करेंगे. क्या वह 3.50 लाख नियोजित शिक्षकों को वेतनमान न देने का साहस करेंगे. पढिये क्या है उनकी चुनौतियां.
इर्शादुल हक, दैनिक भास्कर से साभार
लोकतंत्र में प्रशासक कठोर फैसले लेने के पहले कई बार सोचते हैं क्योंकि बदले में जनता समय-समय पर बेरहम फैसले सुना कर प्रशासकों को उनकी अवकात का एहसास कराती रहती है. लोकसभा में ऐतिहासिक जीत के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय और 2010 बिहार विधानसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश की शिकस्त, जनता के बेरहम फैसलों की दो मिसालें हैं.यह जनता और शासक के बीच शक्ति संतुलन की नजीर भी है और यही लोकतंत्र की खूबी भी.मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन बातों को बखूबी समझते हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि आने वाले 8 महीनों में वह कठोर प्रशासक के बतौर अपना एजेंडा तय नहीं करने वाले.
राजनीतिज्ञ नीतीश
चौथी बार मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद उन्होंने साफ कहा कि उनका एक मात्र एजेंडा गवर्नेंस होगा. एक मुख्यमंत्री के रूप में उनका यह एजेंडा स्वाभाविक है. पर हमें याद रखना होगा कि वह सिर्फ एक मुख्यमंत्री नहीं बल्कि एक राजनीतिज्ञ भी हैं. और एक राजनीतिज्ञ का प्रमुख एजेंडा हर हाल में भविष्य की सुरक्षित राजनीति की तरफ बढ़ते रहना होता है. ऐसे में नीतीश की राजनीति के दो महत्वपूर्ण एजेंडे होंगे. जनता के विश्वास को जीतना और संगठन को इतना मजबूत बनाना कि नवम्बर में होने वाले चुनाव के बाद उनकी पार्टी फिर से सत्ता में आ सके.
पर सवाल यह है कि क्या यह डगर आसान है. खासकर तब जब जीतन राम मांझी ने पिछले आठ महीने में दलित चेतना को बुलंदी पर पहुंचा दिया हो और दलित समाज ने उनमें एक हिरोइक छवि का एहसास किया हो, ऐसे में दलितों में पैठ बनाना नीतीश की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक होगी. इन चुनौतियों में एक प्रशासनिक चुनौती भी विकराल रूप से सामने होगी और वह होगी बिहार के साढ़े तीन लाख नियोजित शिक्षकों को वेतनमान देने की चुनौती.व्यावहारिक रूप से बिहार सरकार के लिए नियोजित शिक्षकों की इस फौज को अगले आठ महीने में वेतनमान देने का जोखिम उठाना आसान नहीं है.
मांझी की चुनौतियां
लेकिन मांझी ने गद्दी छोड़ते हुए बर्र के छत्ते में डंडा लगा कर किनारे हो चुके हैं. दूसरी तरफ भाजपा इसे गंभीर मुद्दे को अपने पक्ष में करने पर जुटी है और वादा कर रही है कि सत्ता में आते ही वह शिक्षकों को वेतनमान दे देगी नियोजित शिक्षकों का मामला एक व्यापक राजनीतिक मामला है. इसे आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि साढ़ तीन लाख वोटरों का प्रत्यक्ष प्रभाव कम से कम 20 लाख वोटरो पर तो है ही. दूसरी तरफ नियोजित शिक्षकों का आंदोलन खालिस राजनीतिक आंदोलन का रूप ले चुका है, क्योंकि तमाम दल इस आंदोलन के पोटेनशियल को समझ चुके हैं. सत्तादारी दल की अपनी सीमायें होती हैं. उसके पास एजेंडा तय करने के कम विकल्प होते हैं जबकि सामने खड़ी चुनौतियां ही, नहीं चाहते हुए भी, एजेंडा बन जाती हैं.
लालू से सामंजस्य
ऐसे में राजनीतिक स्तर पर नीतीश की बाहरी चुनौतियां जितनी हैं, संगठनात्मक स्तर पर भी ये चुनौतिया उससे कम नहीं हैं. जिन लालू प्रसाद के बूते नीतीश ने सत्ता में पुनर्वापसी की है, वह खुद अपने आप में गंभीर चुनौती हैं. लगातार पराजय के बाद भी लालू प्रसाद का वोट बेस नीतीश से बड़ा है. लालू-नतीश दोनों इसे बखूबी समझते हैं. ऐसे में लालू ने नीतीश को जीवनदान देने में जो भूमिका निभाई है उसकी कीमत वह वसूल करेंगे. वह आगामी महीनों में प्रशासनिक स्तर पर न सही, राजनीतिक स्तर पर निर्णायक की भूमिका में होंगे.
नीतीश उनकी आसन्न भूमिका और उनके नेतृत्व से कैसे सामंजस्य बिठा कर आगे बढ़ते हैं यह महत्वपूर्ण सवाल है. जहां तक गवर्नेंस और विकास जैसे मुद्दें की बात है तो वास्तविकता यह है कि बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही इस मोर्चे पर जो भी कह या कर दें, मात्र छह-सात महीने में चीजें जादुई अंदाज में नहीं बदलने वाली. लेकिन यह भी तय है कि नीतीश का व्यवस्थित प्रचार तंत्र गवर्नेंस और विकास के मुद्दे को राज्य की जनता की भावनाओं से जोड़ने का पूरा प्रयास करता रहेगा और बजाहिर गर्वरनेंस को ही अपना एजेंडा घोषित करता रहेगा क्योंकि यही नीतीश कुमार की टीआरपी भी है.
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