बगहा पुलिस फायरिंग की जांच जस्टिस राजेंद्र प्रसाद को सौंपी गयी है, वह एक साक्षात्कार में प्रणय प्रियंवद को बता रहे हैं कि सच सामने आ कर रहेगा, ताकि ऐसी घटना फिर न हो.
बगहा न्यायिक जांच आयोग के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद से प्रणय प्रियंवद ने कुछ मुद्दों पर बातचीत की–
बगहा गोलीकांड मानवाधिकार का बड़ा मामला भी माना जा रहा है। कई पुलिस पदाधिकारियों पर कार्रवाई हुई है. इससे जुड़े न्यायिक आयोग का अध्यक्ष बनाया गया है आपको। आप कैसी जवाबदेही महसूस कर रहे हैं ?
न्यायिक जांच को समझने की कोशिश कीजीए। सच की खोज है। सच को हम खोजना चाहेंगे कि क्यों ऐसा हुआ ? इसके क्या प्रत्यक्ष कारण थे, या कोई अप्रत्यक्ष कारण भी था ? क्यों थारू जाति के लोग उग्र हो उठे ? कौन- सी परिस्थिति थी कि पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी ? कौन दोषी है इसमें ? फिर से ऐसी घटना नहीं घटे भविष्य में इसके लिए क्या उपाय हो सकते हैं ? आम जनता का व्यवहार कैसा होना चाहिए ? पुलिस को कितना इन्प्रूव्ड होना चाहिए ? ब्यूरोक्रेट्स को कैसा होना चाहिए।
आम तौर पर देखा जाता है कि जांच आयोगों की समय सीमा बढ़ायी जाती रही है। लोगों को उम्मीद रहती है कि जल्दी से जल्दी रिपोर्ट आ जाए पर ऐसा हमेशा नहीं होता। आप भी ऐसा मानते हैं ?
समय के महत्व को समझना पड़ेगा। समय आवश्यक भी है। एक व्यक्ति दो मिनट में एक किमी दौड़ जाएगा। दूसरा दस मिनट में भी दौड़ नहीं पाएगा। अगर रास्ते में बाधाएं हैं तो भी ये दूरी तय नहीं होगी। आवश्यकता होने पर तो एक्सटेंशन करना ही पड़ता है। क्योंकि आप तय नहीं कर सकते कि जांच में कितना समय लगेगा ?
लेकिन ये आप मानते हैं कि न्याय मिलने में देर का असर पड़ता है और उसका महत्व कमता है ?
बिल्कुल। न्यायलय में 20 साल से 379 का मुकदम चल रहा है। तो हमारी सिस्टम ऐसी है। हमारी प्रणाली ऐसी है। हमारी मानसिकता ऐसी है।
आपसे लोगों को उम्मीद है कि निष्पक्ष तरीके से जांच रिपोर्ट सामने आयेगी।
निष्पक्षता तो जज के साथ अंडरस्टूड है। वो तो प्रथम प्राथमिकता है। आज भी न्याय प्रणाली पर लोगों को भरोसा है। निश्चित रूप से न्याय सच का रास्ता ढ़ूंढ़ लेता है। लेकिन सच है कि न्याय मिलने में देर होने पर ठीक नहीं होता। कोई अगर बीमार हैं और समय पर इलाज भी नहीं कराएं तो एक मिनट भी काफी हो सकता है।
पुलिस का व्यवहार आम लोगों के प्रति क्रूर होने लगा है लोगों के बीच धारणा बनने लगी है कि पुलिस अंग्रेजी राज की ओर लौट रही है। आप मानते हैं ?
पूरे समाज की कार्यशैली समाज के ही खिलाफ है। एक व्यक्ति की कार्यशैली उसके अपने ही खिलाफ है। वो व्यक्ति जो शराब पीता है, आवारागर्दी करता है तो उस व्यक्ति का कार्य उसके ही खिलाफ है। निश्चित रूप से समाज का कैरेक्टर गिरा है और इसी समाज से कोई जज, कोई पॉलिटिशियन, कोई पुलिस बनता है। वो बीमारी अलग है। हमने समाज को एथिक्स पर चलाया था। मोरिलिटी पर और स्प्रीचुअलिटी पर चलाया था। आज वो चीज नहीं है।
मीडिया को ही लें यहां टीआरपी सभी को चाहिए। इसके फायदे भी हैं नुकसान भी। जब समाज का करेक्टर ही गिरता जा रहा है। आप भी देख रहे हैं। फील कर रहे हैं। एक्सपोलाइटेशन है। आदमी जितना काम करता है उतना मेहनताना नहीं मिल रहा है। आप स्प्रीचुअलिटी को लीजिए। उस पर भाषण होता है । उसके पीछे क्या है। मनी है। आप कबीरदास को याद कीजिए। इतना बड़ा संत आदमी अंतिम समय तक करघा पर कपड़े बुन कर अपने परिवार का पालन करता रहा। लेकिन आज के स्प्रूचुअल लीडर को लीजिए, बैठने वाली कुर्सी ही लाखों रूपए की होती है। समग्रता में देखिए। आप ही को जब जज बना दिया जाएगा तो आपको भी मुश्किल हो जाएगी। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्मर भी आपने पढ़ी होगी। लेकिन अब उसे भी हमने झुठलाया है। इसलिए शायद लोगों को कहना पड़ता है कि न्यायपालिका भी पक्षपात करती है।