यह जानना जरूरी है कि 1966 में भारत सरकार के एक विशेष एक्ट के तहत बना यह उच्च अध्ययन संस्थान जेएनयू वामपंथ का गढ़ क्यों बन सका। इसका उत्तर इसकी विशेष आरक्षण प्रणाली में है। इस विश्वविद्यालय में आरंभ से ही पिछड़े जिलों से आने वाले उम्मीदवारों, महिलाओं तथा अन्य कमजोर तबकों को नामांकन में प्राथमिकता दी जाती रही है। कश्मीरी विस्थापितों और युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के बच्चों और विधवाओं को भी वरीयता मिलती है।
प्रमोद रंजन
सलाहकार संपादक, फॉरवर्ड प्रेस (मासिक)
यहां की प्रवेश परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्न भी इस प्रकार के होते हैं कि उम्मीदवार के लिए सिर्फ विषय का वस्तुनिष्ठ ज्ञान पर्याप्त नहीं होता। जिसमें पर्याप्त विषयनिष्ठ ज्ञान, विश्लेषण क्षमता और तर्कशीलता हो, वही इस संस्थान में प्रवेश पा सकता है। विभिन्न विदेशी भाषाओं के स्नातक स्तरीय कोर्स इसके अपवाद जरूर हैं, लेकिन इन कोर्सों में आने वाले वे ही छात्र आगे चल कर एम. ए., एमफिल आदि में प्रवेश ले पाते हैं, जिनमें उपरोक्त क्षमता हो। इस प्रकार, वर्षों से जेएनयू आर्थिक व सामाजिक रूप से वंचित तबकों के सबसे जहीन, उर्वर मस्तिष्क के विद्यार्थियों का गढ़ रहा है। यहां के छात्रों की कमतर आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि और इसे लेकर उनकी प्रश्नाकुलता, उन्हें वामपंथ के करीब ले आती है।
पूर्ण आवासीय व्यवस्था
अरावली की श्रृंखला के हरे भरे झुरमुटों में लगभग 1000 एकड में बसे इसे पूर्ण अवासीय विश्वविद्यालय ने कभी भी अभिजात तबके को ज्यादा आकर्षित नहीं किया। हॉस्टलों का खान-पान साधारण है और मेस में पानी पीने के लिए ग्लास की जगह जग का इस्तेमाल होता है। एक अनुमान के अनुसार, जेएनयू में आनेवाले कम से कम 70 फीसदी विद्यार्थी या तो गरीब तबके के होते हैं या फिर निम्न मध्यवर्ग के। विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति की मुख्यधारा वामपंथी होने के बावजूद 2006 के पहले तक यहां आर्थिक रूप से कमजोर लेकिन सामाजिक रूप से उच्च तबकों का दबदबा था, क्योंकि यहां अधिक संख्या इसी तबके से आने वाले विद्यार्थियों की थी। दलितों और आदिवासियों की संख्या उनके लिए आरक्षित अनुपात 22.5 फीसदी तक ही सीमित रह जाती थी। हालांकि वर्ष 1995 से ही यहां ओबीसी विद्यार्थियों को नामांकन में वरीयता दी जा रही है, जिसका श्रेय ख्यात छात्र नेता चंद्रशेखर (1964-1997) द्वारा किये गये आंदोलनों को जाता है। लेकिन इसके बावजूद 2006 तक इस विश्वविद्यालय में सामाजिक रूप से वंचित तबकों की कुल संख्या 28-29 फीसदी से ज्यादा नहीं हो पाती थी। 2006 में उच्च शिक्षा में अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षित हुई सीटों ने इस तबके को उच्च शिक्षा के प्रति उत्साहित किया। जेएनयू में सभी विद्यार्थियों को मिलने वाले वजीफे का भी आकर्षण इसके पीछे था।
गैरसवर्णों की बहुलता
जैसा कि फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित लेख ‘दलित बहुजन विमर्श का बढ़ता दबदबा‘ में अभय कुमार ने बताया था कि ‘‘विश्वविद्यालय की वार्षिक रपट (2013-14) के अनुसार, यहां के 7,677 विद्यार्थियों में से 3,648 दलितबहुजन (1,058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति, 1,948 ओबीसी) हैं। अगर हम सीधी भाषा में कहें तो आज विश्वविद्यालय के 50 प्रतिशत विद्यार्थी, गैर-उच्च जातियों के हैं। अगर इसमें ‘सामान्य’ कैटेगरी के तहत चुने जाने वाले एससी, एसटी व ओबीसी उम्म्मीदवारों तथा अन्य वंचित सामाजिक समूहों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को भी शामिल कर लिया जाए तो ऊँची जातियों व उच्च वर्ग से संबंधित विद्यार्थियों का प्रतिशत नगण्य रह जाएगा। नतीजा यह है कि पिछले तीन सालों (2013-14 से) में जवाहरलाल नेहरू विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के विद्यार्थी चुने जाते रहे हैं- वी. लेनिन कुमार (2012), एसएफआई-जेएनयू या डीएसएफए जो कि तमिलनाडु के ओबीसी थे, अकबर चौधरी (2013), एआईएसए, जो कि उत्तर प्रदेश निवासी एक मुस्लिम थे और आशुतोष कुमार (2014) एआईएसए, जो बिहार के यादव हैं।’ 2012 में तो जेएनयू छात्र संघ के चारों पद ओबीसी तबके से आने वाले उम्मीदवारों ने ही जीते थे।
छात्र राजनीति में पिछड़ों को लीड
वर्ष 2015 में छात्र संघ के चुनाव में विजयी रहे उम्मीदवारों की सामाजिक पृष्ठभूमि में भी यही बात परिलक्षित होती है। अध्यक्ष- कन्हैया कुमार, एआईएसफ (उच्च हिंदू जाति भूमिहार), उपाध्यक्ष- शलेहा रासिद, आइसा (मुसलमान), जनरल सेक्ररेट्री – रामा नागा, आइसा (दलित), ज्वाईंट सेकेरेट्री – सौरभ कुमार शर्मा, एबीवीपी (ओबासी) हैं। गौरतलब है कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव में 14 साल बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) का कोई उम्मीदवार जीता है, इस जीत के पीछे स्पष्ट रूप से उसके उम्मीदवार की ओबीसी सामाजिक पृष्ठभूमि भी काम कर रही थी। इसी तरह, उपरोक्त कांड में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार वर्तमान छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार (उच्च जाति हिंदू) के भाषणों के वीडियो आपने देखे होंगे। वे न सिर्फ एक प्रखर वक्ता हैं, बल्कि उनके भाषण फूले-आम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद का खूबसूरत संगम होते हैं। जेएनयू के विद्यार्थी बताते हैं कि उनकी जीत का श्रेय उनके इन्हीं भाषणों को है।
ध्यातव्य यह भी है कि पिछले साल हुए नामांकनों के बाद जेएनयू में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी की कुल संख्या लगभग 55 फीसदी हो गयी है। जेएनयू में अरबी, परसियन आदि विभिन्न भाषाई कोर्सों में बडी संख्या में मुसलमान विद्यार्थी हैं। उनसे संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अगर उनके साथ अशराफ मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों की संख्या भी जोड़ दी जाए तो निश्चित ही आज जेएनयू में अद्विजों संख्या कम से कम 70 फीसदी हो चुकी है। यह भी गौर करें कि 2006 से 2015 के बीच जेएनयू में सिर्फ ओबीसी विद्यार्थियों की संख्या 288 से बढकर 2434 हो गयी है। यानी पिछले 9 सालों में विवि में ओबीसी छात्रों की संख्या लगभग 10 गुणा बढी है। महिलाओं की संख्या भी काफी बढी है।