सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई निदेशक को 2जी घोटाले की जांच से हटा कर उनके चेहरे को बेनकाब कर दिया. सीबीआई के 74 साल के इतिहास में उसके किसी निदेशक पर ऐसा कलंक नहीं लगा. पढिये रंजीत का विवादित सफर.

रंजीत सिन्हा: आखिरी वक्त में रुस्वाई
रंजीत सिन्हा: आखिरी वक्त में रुस्वाई

इर्शादुल हक, सम्पादक

केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई के बारे में एक मान्य कहावत है कि जब भी कोई पेचीदा मसला आता है तो इसकी निष्पक्ष जांच के लिए सीबीआई का दरवाजा खटखटाया जाता है. पर यह भी उतना ही सच है कि सीबीआई को सत्ता की पार्टी का खिलौना भी समझा जाता है. जभी तो पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सीपीआई को ‘पिंजड़े में बंद तोता’ तक कहना पड़ा.

लेकिन इस हफ्ते सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिया वह इस जांच एजेंसी के माथे पर ऐतिहासिक कलंक जैसा है. अदालत ने 2जी और कोयला घोटाले की जांच से रंजीत सिन्हा को अलग हो जाने का आदेश दिया.

यानी रंजीत सीबीआई के प्रमुख तो रहेंगे पर उन्हें इन घोटालों की जांच का हक नहीं होगा. रंजीत के घोटाले की जांच से अलग होने का मामाल ठीक वैसा ही है जैसे किसी परिवार के मुखिया को यह कहा जाये कि आप अपने घर में रहें जरूर लेकिन उस घर से जुड़े फैसले लेने का हक आपको नहीं है.

कलंक कथा

अदालत ने ऐसा हुक्म यूं ही नहीं दिया. उसने जब जाना कि कि 2जी घोटाले के आरोपियों और दिग्गज कम्पनियों के मालिकों के संग रंजीत अपने घर पर मुलाकत करते हैं जिसके कारण कोई वजह नहीं कि यह माना जाये कि उनके खिलाफ हो रही जांच में रंजीत उनके संग हमदर्दी न दिखायें. यह तो भला हो आम आदमी पार्टी के नेता और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का जिन्होंने रंजीत को अदालत तक घसीट दिया.

सीबीआई के 75 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि उसके प्रमुख को ही किसी जांच से अलग रहने का हुक्म दिया गया हो. यह सीबीआई के माथे पर लगा ऐतिहासिक कलंक है.

 

सीबीआई के 75 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि उसके प्रमुख को ही किसी जांच से अलग रहने का हुक्म दिया गया हो. यह सीबीआई के माथे पर लगा ऐतिहासिक कलंक है. संस्थाओं के अफसरान आते और जाते रहते हैं लेकिन संस्थायें मौजूद रहती हैं. लेकिन रंजीति सिन्हा ने जो कलंक लगाया है, यह माना जाना चाहिए कि उसके दाग सिर्फ रंजीत सिन्हा के माथे पर ही रहें और सीबीआई, बतौर संस्था अपनी विश्वसनीयता बचा ले. पर यह आसान नहीं है.

ऐसे में रंजीत सिन्हा को खुद ही अपने पद से हट जाना चाहिए. उन्हें अगर जरा भी गैरत है तो यह काम जल्द ही कर देना चाहिए, वैसे भी वह अलगले महीने रिटायर हो रहे हैं.

 निष्पक्षता पर हमेशा सवाल

रंजीत सिन्हा अपने करियर के शुरू से ही विवादों में घिरे रहे हैं. उनकी ईमानदारी और निष्पक्षता हमेशा ही सवालों के घेरे में रही है. सिन्हा 1974 बैच के बिहार कैडर के आईपीएस अफसर हैं. उन्होंने नवम्बर 2012 में सीबीआई निदेशक की जिम्मेदारी संभाली. दिसम्बर 2014 में वह रिटायर होने वाले हैं. लेकिन सिन्हा अपने 36 वर्ष के लम्बे करियर में हमेशा विवादों में रहे.

ठीक एक साल पहले रेलवे घूस कांड काफी चर्चा में आया. सीबीआई ने रेल घूस कांड में आरपीएफ के आला अधिकारियों को रंगे हाथों पकड़ा था. इसके बाद जब विवाद की परतें खुलने लगीं तो रंजीत सिन्हा पर आरोप लगे कि वह किसी जमाने में आरपीएफ के महानिदेशक थे. ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के महासचिव उमाशंकर झा ने आरोप लगाया था कि घूसखोरी आरोपों में ही यहां से हटाया गया था. झा के मुताबिक, उन्होंने 28 अप्रैल 2010 को रेलमंत्री ममता बनर्जी से तत्कालीन आरपीएफ डीजी रंजीत सिन्हा व आइजी बीएस सिद्धू के भ्रष्टाचार की शिकायत की थी. ममता ने रेलवे बोर्ड में कार्यकारी निदेशक (सिक्युरिटी) नजरुल इस्लाम से जांच कराई थी. सीबीआइ सिद्धू के खिलाफ पहले से ही जांच कर रही थी. उसी जांच के आधार पर सिद्धू को उनके मूल काडर में भेज दिया गया था. आरपीएफ एसोसिएशन ने 20 जनवरी 2011 को रंजीत सिन्हा के खिलाफ मय प्रमाण 10 पेज की एक और तगड़ी शिकायत रेलमंत्री का भेजी. शिकायत सही पाई गई और अंतत: सिन्हा को भी 19 मई, 2011 को आरपीएफ से हटाकर कंपल्सरी वेटिंग में गृह मंत्रालय भेज दिया गया था.

इतना ही नहीं रंजीत सिन्हा अपने करियर के शुरुआत से ही सत्ता के नजदीक बने रहने का हुनर जानते हैं. उन्होंने बतौर आईपीए अफसर बिहार के कुछ जिलों में बतौर एसपी भी काम किया है. बुचर्चित चारा घोटाले की जांच के मामले में भी रंजीत सिन्हा की भूमिका की शिकायतें मिलती रही ती.

विवादों से भरा करियर

रंजीति सिन्हा की निष्पक्षता और ईमानदारी पर सवाल खड़े होते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ कई बार विवादित बयानों के कारण उन पर गंभीर रूप से उंगलियां उठती रही हैं. पिछले वर्ष उन्होंने क्रिकेट में सट्टेबाजी के बहाने एक आपत्तिजनक लैंगिक टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा- “सट्टेबाजी को वैध घोषित कर देना चाहिए.और यदि कानून को लागू नहीं किया जा सकता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि कानून बनाए ही नहीं जाने चाहिए. यह कहना उतना ही गलत है जितना यह कहना कि यदि बलात्कार को रोका नहीं जा सकता तो पीड़ित को इसका आनंद उठाना चाहिए”. बलात्कार पीड़िता से इस बयान को जोड़ कर सिन्हा भारी आलोचना का शिकार बने ते.

अब जबकि अदालत ने उनके व्यावहार और आचरण को कटघरे में खड़ा करते हुए 2जी घोटाले की जांच से अलग रहने का हुक्म दिया है ऐसे में यह सरकार की जिम्मेदारी है कि इस घोटाले में अभी तक की उनकी भूमिका की जांच हो. केंद्र सरकार को निश्चित तौर पर इस दिशा में कोई बड़ा फैसला करना चाहिए.

By Editor


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