रूबी राय

एक दिन तुम्हारी डिग्री की चिंता में मैं डूब ही गया। कुछ अच्छा करने का जतन किया। संयोग से बहुत अच्छा हो गया। यही संयोग तुम्हारे लिए दुर्योग बन गया।

रूबी राय
रूबी राय

भवेश चंद

महज दूसरी क्लास में गई थी तुम। बिहार में धूमधाम से शिक्षा व्यवस्था का जीर्णोद्धार किया जा रहा था। साल था 2006। उस समय तक तो तुमने पढ़ाई शुरू करने की औपचारिकता ही पूरी की थी। हम सब खुश थे। यह सोचकर कि तुम्हारी पढ़ाई अच्छे समय में शुरू हो रही है। शिक्षा व्यवस्था नई-नवेली दुल्हन की तरह फिर से सजाई जा रही थी। सोचा, तुम्हारी किस्मत भी उसी नाज से संवारी जाएगी। सब कह रहे थे, सरकारी स्कूलों के दिन फिर गए हैं। मास्साब दिखने लगे हैं। किसी क्लास का बेंच वीरान नहीं रहा। सब पर बच्चे बैठे दीखते हैं। उसी खुशी में हमने तुम्हारा भी दाखिला कराया था। तुम क्या जानो? हर बच्चे की तरह तुमने भी नाज-नखरे दिखाए थे। मगर, मैं जानता था ये बच्चों की आदत है। बड़ों को अपना फर्ज निभाना चाहिए। तुम्हें स्कूल भेजने लगे हम। सरकारी स्कूल।

समय के साथ तुम बढ़ती गयी
वक्त ठहरता नहीं। बीतता जाता है। वैसे ही हमारा-तुम्हारा वक्त भी बीता। तुम्हारी तोतली जबान से इक्कम-दुक्कम सुनने को मिले। फिर सधी जबान से ककहरे सुनाई देने लगे। हम पुरउम्मीद थे। तुम्हारी पढ़ाई ठीक चल रही है। सरकारी स्कूलों के शिकवे बीते दिनों की बात हो गए थे। जरा याद करो! जब तुमने प्राइमरी की नैया पार लगा दी। सब खुश थे। घरवालों को नाज होने लग गया था। बेटी पढ़ने जो लगी थी। दिल लगाकर। बचपने की उछल-कूद के साथ तुम्हारा पढ़ना हम सबको भाने लगा था। अच्छा लगने लगा था तुम्हारा स्कूल जाना और फिर हांफते हुए घर लौटना। सबके सब टूट पड़ते थे, तुम्हें खिलाने के लिए। ठूंस-ठूंस के खिलाते थे। बेटी कमजोर हो जाए। हम सबकी बेटी। सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली बेटी। हम सबने तय किया कि फिर से वही सरकार आएगी। आई भी। नए तेवर के साथ।

समय बदलता गया
इस बार स्कूल में खिचड़ी भी आई। पढ़ाई को पौष्टिक आहार मिल गया। स्कूल में घर जैसा अहसास होने लगा। जैसे घर में मां खाना बना रही होती है, वहीं बच्चे पढ़ रहे होते हैं। बतियाते हुए। ठीक वैसा ही। स्कूल के जिस कमरे में बच्चे पढ़ते हैं, वहीं बगल में खिचड़ी पकती है। अच्छे माहौल में। खैर, तुम बड़ी हुई। हाईस्कूल गई। मैट्रिक कर गई। अच्छा लगा। तुम्हें इंटर कॉलेज भेजा। तुम पढ़ने लगी। बढ़ने लगी। दसवीं भी पास कर गई। ग्यारहवीं में पहुंच गई। तुम तो रोज कॉलेज जाती थी। फिर हमें क्योंकर चिंता होती। मगर, हो गई चिंता। एक दिन तुम्हारी डिग्री की चिंता में मैं डूब ही गया। कुछ अच्छा करने का जतन किया। संयोग से बहुत अच्छा हो गया। यही संयोग तुम्हारे लिए दुर्योग बन गया। तुम्हें ऐसी जगह जाना पड़ा, जहां अपनी बेटी को जाते हुए कोई देखना नहीं चाहेगा। माफ करना… गलती तुम्हारी नहीं है।

 

दैनिक भास्कर से साभार

By Editor


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