इस आलेख में शक्तिमान राही उन बिंदुओं को रेखांकित कर रहे हैं जो बताते हैं किinflation मुद्रास्फीति दर असल आम गरीबों के खिलाफ सरकार और पूंजिपतियों की मिली-जुली साजिश है.

‘मुद्रा’ को हम विनिमय के साधन के रूप में जानते हैं। यह मानव श्रम के प्राकृतिक संसाधनों साथ उत्पादों के वितरण-प्रसारण की इकाई का रूप है। वैसे मुद्रा का मूल अर्थ है वह मुहर, सिक्का, नोट जिस पर मौजूदा व्यवस्था के तहत किसी धरक को वहाँ मौजूद उत्पादों के एवज एक निश्चित मूल्य धरण करने का अध्किार मिलता है। इसके तहत धरक को उस अधिकार को प्रदान करने की सरकार की वचनबद्धता भी मिलती है। साथ ही मुद्रा को किसी देश की द्रव्यीय इकाई के रूप में द्रव्य की मात्रा के रूप में भी देख सकते हैं, जो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय भुगतान में इस्तेमाल होता है।

धारक के प्रति वचनबद्धता

अब थोड़ा भारतीय मुद्रा पर नजर डालें तो पाते हैं कि यहाँ चलने वाले तमाम कागजी नोट पर लिखा होता है, मैं धरक को 2, 5, 10 या 100, 500, 1000 रूपया अदा करने का वचन देता हूँ। यहाँ पर एक बात और गौर करने लायक है धारक के प्रति सरकार या बैंक की यह वचनबद्धता एक रूपया के नोट पर एवं तमाम धतु के सिक्कों पर अंकित नहीं दिखती है। यहाँ पर सरकार की एक साजिश नजर आती है कि सिक्कों और एक रूपये के नोट के रूप में अधिकाधिक मुद्रा बाजार में पहुँचा देती है। इससे आम आदमी की जेब में बाजार से चीजों को खरीदने की थोड़ी ताकत आ जाती है।

इस नीति का उपयोग हर देश की सरकार करती है। वे आर्थिक संकट से निजात पाने व बजट-घाटे को पूरा करने के लिए तथा आम जनता की क्रय शत्तिफ को बढ़ाने के लिए भारी मात्रा में कागजी नोट छाप कर बाजार में मुहैया कराती हैं। इसके लिए उन्हें कोई मूल्य अदा करना नहीं पड़ता और न वह कोई वादा ही करती है। ये कागजी नोट आसानी से जनता के बीच पहुँचा दी जाती हैं। इन्हें जनता अपनी कठिन श्रमशक्ति के मूल्य के रूप में प्राप्त करती है।

मुद्रास्फीति और महंगाई

इस तरह आम आदमी के पास बाजार से चीजों को खरीदने की थोड़ी ताकत आ जाती है या बढ़ जाती है। इसमें जहाँ एक तरफ आम जनता की क्रय शत्तिफ की बेहद लूट होती है, वहीं दूसरी तरफ पूंजीपति व शोषक वर्ग मालामाल होता जाता है। कारण कि कागजी मुद्रा के चलन में असाधरण वृद्धि के चलते महंगाई बढ़ा दी जाती है और आम जनता चीजों के बढ़े हुए दाम पर ही उसे खरीदने के लिए बाध्य होती है। आम तौर पर किसी देश का रक्षा बजट जब बढ़ता है तो मुद्रास्फीति भी बढ़ जाता है। इससे बाजार में कागजी नोटों की बाढ़ आ जाती है। फलतः महंगाई की मार से आम जनता की क्रयशक्ति लगातार घटती चली जाती है। यहाँ यह भी गौरतलब है कि इस क्रम में पूंजीवादी माल-उत्पाद ज्यादा होने और उसकी बिक्री कम हो जाने की वजह से आर्थिक-संकट गहरा होने लगता है।

द्रष्टव्य है कि भारत जैसे विकासशील देशों में आर्थिक संकट आने और आम जनों की क्रयशक्ति बेहद घट जाने की वजह से पूंजीपतियों के कारखानों में उत्पादित माल की बिक्री काफ्रफी प्रभावित होती है, यहाँ तक कि ठप्प भी पड़ जाती है। अर्थात माल-उत्पादों में वृद्धि की तुलना में उसकी खपत काफी कम जाती है। इससे उनके मुनाफा गड़बड़ा जाता है। इस स्थिति से उबरने के लिए ही पूंजीवादी सरकारें व रिजर्व बैंक सरीखे बैंक मुद्रा की छोटी इकायों मसलन एक रुपया का कागजी नोट व धतु के सिक्कों को छाप कर बाजार में इसकी बाढ़ ला देती हैं। फलतः ठप्प पड़े मालों की बिक्री और भी उफँचे दामों पर शुरु हो जाती है। जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं कि कैसे भारत सरकार साजिश के तहत एक रूपया के नोट व हर तरह के सिक्के बाजार में पहुँचाकर आम मेहनतकश जनता को धेखा दे रही है।

कागजी मुद्रा और इंफ्लेशन

अब यहीं से सारी बातें स्पष्ट होकर सामने आ जाती हैं कि कागजी मुद्रा के चलन में विस्तार आना ही मुद्रास्पफीति है।

लेकिन मुद्रास्पफीति को परिष्कृत शब्दों में हम इस तरह देख सकते हैं कि क्रय-विक्रय योग्य उत्पाद, आहार आदिद् की आवश्यकताओं की तुलना में अतिरिक्त कागजी मुद्रा का परिचालन, जिसके फलस्वरूप मुद्रा का मूल्य कम हो जाता है। साथ ही मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत मुद्रा की क्रय-शक्ति के घटने की प्रक्रिया, जो लगातार बढ़ती हुई कीमतों में व्यक्त होती है और जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय आय का बुर्जुआ वर्ग के हित में पुनर्वितरण होता है, यही मुद्रास्फीति है।

लेखक वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और ये उनके निजी विचार हैं. उनसे[email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है

By Editor


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