पुलिस व सेना की भर्ती के लिए एक ही पृष्ठभूमि के युवा आते हैं फिर क्यों सेना वाले देशभक्त और ईमानदार होते हैं जबकि पुलिस वाले भ्रष्ठ व जिम्मेदारी से भागने वाले होते हैं?
शिवदान सिंह, रिटार्यड कर्नल
उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय में सांप्रदायिक तनाव की बढ़ती घटनाओं की खबरों में बार-बार पुलिस की कुशलता और विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते रहे हैं। यह हाल अकेले उत्तर प्रदेश का ही नहीं है, 1984 के दिल्ली के दंगों से लेकर 2002 के गुजरात दंगों में भी यही सब देखने को मिला था। बात सिर्फ सांप्रदायिक दंगों की नहीं है। अपराधों की रोकथाम और जांच के मामलों में भी पुलिस का यही हाल है। किसी मामले में वह राजनीतिक दबावों के आगे झुकी दिखती है, तो किसी मामले में वह बिना दबाव के भी असहाय से लगती है। हमारी पुलिस ऐसी क्यों है?
पुलिस, अर्धसैनिक बलों व सेना की भर्ती के लिए अपने देश के लगभग एक ही उम्र, और एक ही पृष्ठभूमि के नौजवान आते हैं। तब क्या कारण है कि सेना में जाने पर वे कर्तव्यपरायणता, देशभक्ति तथा ईमानदारी की मिसाल कायम करते हैं और वहीं पुलिस में जाने पर उदासीन, भ्रष्टाचार में लिप्त व अपने सही कर्तव्य से विमुख नजर आते हैं?
कार्य-संसकृति
इसका मुख्य कारण है उनकी कार्य-संस्कृति, उनको मिले दिशा निर्देश, नैतिक मूल्य, प्रेरणा तथा अपने वरिष्ठों द्वारा प्रस्तुत उदाहरण। हमारे देश की पुलिस व्यवस्था अब भी 1861 के कानून से चलाई जा रही है। यह कानून प्रजातंत्र की भावनाओं से कोसों दूर है। आम जनता से दोयम दर्जे का व्यवहार इसकी जड़ों में है। पुलिस की नियुक्ति, तबादले तथा अन्य रखरखाव केवल और केवल राज्य सरकारों के अधीन है और इस कारण राज्यों में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपने आपको सत्ता में बनाए रखने के लिए पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल भी करते हैं। जो पुलिस शासन का इतना प्रमुख तंत्र है, वही आधुनिक प्रशिक्षण, जांच, तकनीक और पेशेवर संस्कृति से कोसों दूर है।
हमारे यहां कानून व्यवस्था कायम करने और अपराधों की रोकथाम व जांच के लिए अलग व्यवस्था नहीं है। ड्यूटी के लंबे-लंबे घंटे तथा राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस का मनोबल बहुत गिरा रहता है। इसीलिए अक्सर या तो पुलिस उदासीन नजर आती है, या फिर अपनी असमर्थता और खीझ मिटाने के लिए बर्बरता पर उतर आती है।
सोच
कई बार पुलिस वालों की नैतिक सोच उनको धिक्कारती है, लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते वे एक हद से ज्यादा पेशेवर रवैया नहीं अपना पाते हैं। यह दबाव सिर्फ राज्य के स्तर का नहीं है, स्थानीय और सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय कॉडर के स्तर का भी होता है। इन्हीं दबावों के कारण हमें अक्सर पुलिस का रवैया पक्षपातपूर्ण दिखता है। खासतौर पर सांप्रदायिक तनाव की स्थिति में, जब मामला वोट बैंक का होता है। ऐसा ही रवैया अपराधों की जांच व रोकथाम में भी नजर आता है।
इन हालात से उबरने का एक ही तरीका है कि पुलिस को पुराने तौर-तरीकों से हटाकर आज की जरूरतों के हिसाब से ढाला जाए। सत्ता की राजनीति से अलग करके पुलिस को स्वायत्तता दी जाए।
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