आठ वर्षों तक नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार से दर्द, पीड़ा और स्वाभिमान पर जो चोट झेला था. तो क्या अब वह तमाम जख्मों का हिसाब नीतीश से ले रहे हैं ? क्या मोदी ने नीतीश के इकबाल को हिला दिया है? पढिये, नौकरशाही डॉट कॉम के एडिटर  इर्शादुल हक का विश्लेषण 

एक दौर था, जब नरेंद्र मोदी को बिहार में सार्वजनिक सभा करने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इजाजत चाहिए होती थी. इतना ही नहीं  उस समय भाजपा आला कमान नीतीश की नाराजगी का जोखिम उठाने का साहस नहीं कर सकता था. तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. तब भी नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री थे. और अब भी मुख्यमंत्री हैं. तब भी भाजपा  का समर्थन उन्हें प्राप्त था. अब भी प्राप्त है.

फाइल फोटो पीटीआई

 

फर्क यह है कि वह 2014 के पहले का दौर था. और यह 2014 के बाद का सच है. जहां नीतीश नरेंद्र मोदी के सामने याचक की भूमिका में हैं, सार्वजनिक मंचों से प्रार्थना करते हैं पर यह उन्हें पक्का विश्वास नहीं रहता कि मोदी उनकी बातों को सुन ही लेंगे.

यही इतिहास है, यही सत्य है

यह समय का फर्क है. यह इतिहास का सत्य है. और यही इतिहास का, कालचक्र का वास्तविक रूप है. नीतीश कुमार 2005 से 2010 तक भाजपा के लिए जरूरी बनते चले गये थे. और 2010 से 2013 तक तो मजबूरी बन गये थे. 2005 में लालू-राबड़ी के 15 साल के मजूबत किला को फतह करने के बाद नीतीश सशक्त मुख्यमंत्री बन कर उभरे थे. और 2010 में लालू के बचे-कुचे किले को ध्वस्त कर जो अप्रत्याशित सफलता हासिल की थी, उस सफलता ने नीतीश को भारतीय राजनीति के सर्वाधिक शक्तिशाली नेताओं में से एक बना दिया था. तब भाजपा बिहार में सत्ता में तो उनकी सहयोगी थी, पर नीतीश कुमार के सामने उसकी हैसियत एक मेमियाते बकरे के सिवा कुछ न बची थी. वह 2009 के लोकसभा चुनाव प्रचार का दौर था, जब गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसित से नरेंद्र मोदी बिहार में प्रचार करने की हसरत ले कर बिहार आना चाहते थे. लेकिन तब नीतीश कुमार ने फरमान सुना दिया था कि वह ऐसी हसरत ना पालें. सो मोदी की उम्मीदों पर पानी फिर गया था. और उसके बाद की घटनाओं में से एक महत्वपूर्ण घटना यह थी कि भारतीय जनता पार्टी ने एक ऐसा पोस्टर बिहार में जारी कर दिया था, जिसमें नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार का हाथ थामें खड़े हैं. बस क्या था, इस पोस्टर से नाराज नीतीश कुमार ने भाजपा के आला कमान तक को सांस लेना दुश्वार कर दिया था. उस दौर के दो घटनाक्रम यह थे कि नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री आवास में भाजपा नेताओं का भोज अंतिम समय में रद्द कर दिया था. और तब भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं के ईगो को ठेस तो पहुंचा था, पर वे अपना दर्द किसी को शेयर तक नहीं कर सके थे. कुछ इसी तरह की एक घटना यह थी कि बिहार बाढ़ राहत कोष में गुजरात सरकार ने जो चेक बिहार सरकार को भेजा था उसे नीतीश कुमार ने लौटा कर भाजपाई खेमा को भारी चोट पहुंचाई थी.

नीतीश की आखिरी चोट, बेबस भाजपाई

नीतीश कुमार ने, भाजपा के दिग्गजों को आखिरी और निर्णायक चोट जुलाई 2013 में दी थी, जिसके जख्मों के निशान भाजपाई न तो दिखा सकते थे, न छुपा सकते थे. नीतीश कुमार ने अचानक भाजपा कोटे के तमाम 11 मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इस मंत्रिमंडल में सुशील कुमार मोदी भी थे और नंद किशोर यादव भी. दीगर दिग्गज तो थे ही. नीतीश कुमार ने ऐसा तब किया था जब भाजपा ने, लाल कृष्ण आडवाणी की जगह 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान समिति का मुखिया चुन लिया था. तब नीतीश ने मीडिया से कहा था कि हमें यह स्वीकार नहीं कि कोई अपना नेता हम पर थोपे. इसी के बाद नीतीश का भाजपा के साथ 17 साल पुराना रिश्ता टूट गया था.

समय बदला तो हिसाब बराबर

फिर समय ने करवट ली. 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ. तब नरेंद्र मोदी, नीतीश की पाबंदियों के मुहताज नहीं थे. वह बिहार में जोरदार प्रचार के दौरान नीतीश को हिमालयाई अहंकार से भरा व्यक्ति बताने लगे. चुनाव नतीजे आये. मोदी की आंधी में नीतीश की पार्टी हवा में उड़ गयी. लोकसभा में जदयू के महज दो एमपी बच पाये.

 

2014-15 नीतीश को अपना अस्तित्व बचाने का दौर था. वह लालू के करीब आये. खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार बनवाया. चुनाव हुआ और राजद के साथ उन्हें प्रचंड बहुमत मिला. तब नीतीश ने दो घोषणायें की. पहला- मिट्टी में मिल जाऊंगा पर भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा. दूसरा- संघमुक्त भारत बनाऊंगा. पर डेढ़ साल ही बीते कि, नीतीश की नजदीकियां भाजपा से बढ़ने लगीं. यूपीए की मीटिंगों में शिरकत के बजाये वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दावतों में शामिल होना जरूरी समझने लगे. फिर एक दिन उन्होंने वही इतिहास दोहराया, जो 2013 में भाजपा के मंत्रियों को बर्खास्त करके किया था. लेकिन इस बार फर्क यह था कि उन्होंने नये सहयोगी राजद के मंत्रियों को बर्खास्त नहीं किया. बल्कि खुद अपना इस्तीफा राज्यपाल को रातों रात   सौंप दिया और सुबह की पहली किरण से पहले भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बन बैठे.

 

आया ऊंट पहाड़ के नीचे

27 जुलाई 2017 की गर्मी की उमस भरी शाम तक नीतीश भाजपा के साये में आ चुके थे. पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नीतीश सरकार के शपथग्रहण में शामिल होना था. लेकिन शायद ही किसी ने सोचा था कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने नीतीश कुमार द्वारा खाये एक-एक चोट का बदलना लेने की रणनीति बना ली है. नरेंद्र मोदी इस समारोह में शामिल नहीं हुए. उनका शामिल ना होना यह इशारा था कि अब मोदी अपने तमाम जख्मों का हिसाब लेने वाले हैं. पर वह पहला दिन था, सो लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. अगस्त बीतने से पहले ही बिहार भीषण बाढ़ की चपेट में आ गया. बिहार सरकार ने प्रधानमंत्री से गुहार लगायी कि वह खुद आयें और यहां के हालात का जायेजा लें. मोदी आये. नीतीश के साथ हवाई सर्वे भी किया. लेकिन दोपहर के उस भोज को ठुकरा दिया जिसे बिहार सरकार ने उनके सम्मान में रखा था. यह दूसरी चोट थी. पर बात यही खत्म नहीं हुई थी. मोदी दिल्ली लौटे और बाढ़ राहत का ऐलान किया जिसमें 500 करोड़ रुपये देने की बात कही. इस घोषणा से हड़कम्प मच गया. क्योंकि 2008 की बाढ़ से कई गुणा भीषण बाढ़ 2017 की थी. लेकिन 2008 में पीएम मनमोहन ने 1100 करोड़ दिये थे. पर मोदी ने 9 साल बाद की भीषणतम बाढ़ के लिए महज 500 करोड़ दे कर जता दिया कि वह अपने जख्मों के हिसाब ले रहे हैं. मोदी की इस घोषणा का राजनीतिक फायदा कांग्रेस और राजद ने उठाया और नीतीश कुमार की खूब खिल्ली उड़ाई. लेकिन नरेंद्र मोदी यहीं नहीं रुके. वह अपने पुराने जख्मों का हिसाब अभी और लेना चाहते थे. लिहाजा चंद महीने पहले जब वह पटना युनिवर्सिटी के शताब्दी समारोह में पहुंचे तो उनके सत्कार की खूब तैयारियां की गयीं. भरे समारोह में नीतीश कुमार ने उनसे दोनों हाथ जोड़ कर पटना युनिवर्सिटी को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की गुजारिश की. गुजारिश ही नहीं बल्कि प्रार्थना की. पर मोदी तो मोदी ठहरे. उन्हें हिसाब बराबर करना था, सो उन्होंने उनकी मांग  बड़ी बेरुखी से खारिज कर दी.  मोदी की इस बेरुखी से नीतीश कितने आहत हुए होंगे, इसका अंदाजा किया जा सकता है.  लेकिन इन तमाम रुखे व्यवहारों के बावजूद नीतीश ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. शायद अपने दर्द को बताना नहीं चाहते थे. हालांकि वह जान रहे होंगे कि ये दर्द उन्हें बदले में मिल रहा है.

 

बेबसी का आलम

नरेंद्र मोदी ने पिछले भाजपा के साथ मिल कर नीतीश कुमार द्वारा सरकार गठने के अभी साढे तीन महीने बीते हैं. लेकिन कुछ अंतराल पर मोदी की तरफ से कोई ना कोई गंभीर चोट नीतीश सरकार को मिलती रही है. बस तीन दिन पहले यानी 10-11 नवम्बर को राजगीर में आयोजित होने वाली ऊर्जा मंत्रियों के राष्ट्रीय सम्मेलन को आखिरी पल में रद्द करके मोदी ने एक और चोट नीतीश कुमार को पहुंचा दी. यह चोट कुछ गंभीर जख्म पहुंचाने वाला साबित हुआ. क्योंकि इसके आयोजन की न सिर्फ सारी तैयारिया पूरी कर ली गयी थीं बल्कि कई राज्यों के अधिकारी पटना पहुंच चुके थे. करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके थे. बिहार समेत अनेक राज्यों के अधिकारी पटना से राजगीर कूच कर चुके थे. पर अंतिम समय में केंद्र से सूचना मिली की कार्यक्रम रद्द. नीतीश हक्का-बक्का थे. अधिकारी बेसुध थे. भाजपाई खेमा चुप था. और लालू आक्रामक थे. जहां मोदी अपने दर्द का हिसाब नीतीश से कर रहे थे वहीं लालू इस दर्द के लम्हे में अपने आक्रमण से नीतीश की परेशानियां बढा रहे थे. कार्यक्रम रद्द जिस दिन हुआ वह शनिवार था. शनिवार से ले कर रविवार तक लालू आक्रमक थे. उनके आक्रमण के बाद नीतीश सोमवार को जुबान खोलते हैं. साप्ताहिक लोकसंवाद कार्यक्रम में के बाद पत्रकारों से पहली बार अपनी पीड़ा बताते हैं. वह कहते हैं कार्यक्रम केंद्र ने रद्दा किया. रद्द करना ‘अव्यवहारिक’ था.  नीतीश इस से ज्यादा कुछ नहीं बोले. बोल भी क्या सकते थे. शायद वह जान रहे थे. सब समय का फेर है. यही कालचक्र है. पर यह कालचक्र यहीं थमेगा? शायद नहीं. शायद नरेंद्र मोदी अपने जख्मों का अभी और बदला लेंगे.

 

 

 

 

 

By Editor