अगर हर तरह से उग्रवाद को हराना है तो मुसलमानों को ईमानदारी से अपनी बहस के मुद्दों को इस्लाम पर केंद्रित करना होगा, ठीक वैसे ही जिस प्रकार उग्रवादी धर्म का बेजा इस्तेमाल अपने संकीर्ण मंसूबों को पाने के लिए करते हैं।
उग्रवादी एक ऐसा इंसान होता है जिस की मानसिक स्थिति एक मानसिक रोगी की तरह होती है। वह हमेशा कुरान का या अन्य धार्मिक आयतों को तोड़ मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुसार इस्तेमाल करता है तथा अपने आप को इस धरती का सबसे सही मनुष्य तथा अन्य सभी को गलत मानता है। उसकी सहनशीलता का स्तर बहुत कम होता है तथा वे सभी जो उससे इत्तेफाक नहीं रखते उनको वह काफिर या गैर मुस्लिम तक करार देता है। उनका यह मानना कि जो कुछ पश्चिम से आया है वह अपवित्र है जबकि व्यक्तिगत जिंदगी में पश्चिम द्वारा की गई तकनीकी चीजों का इस्तेमाल करते हैं। उनके अंदर बदला लेने की भावना कूट कूट कर भरी होती है एवं जो लोग उससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते उनसे वे कभी भी समझौता नहीं करते।
इस्लाम चरमपंथ के खिलाफ है
यह आज की मांग है कि मुसलमान चरमपंथ के खिलाफ आवाज उठाएं क्योंकि इस्लाम ना तो इसका पर्यायवाची है और न ही इसकी इसे तर्कसंगत मानता है बल्कि इसके विपरीत इस्लाम को चरमपंथ से सख्त नफरत है। कुरान की कई आयतों में ऐसा कहा गया है-‘ऐ इंसान। आप अपने धर्म की इंतहा में न जाएं’ (सुर-अन-निसा:171)। इसमें आगे कहा गया है कि मजहब में कोई मजबूरी नहीं होती (अल बकरा: 256) कुरान में मश्विरा दिया गया है कि जो आपसे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते, उनके प्रति सहनशक्ति और फराखदीली बरती जाए।
कुरान में आगे कहा गया है कि खुदा कहता है कि तुम्हारी सच्चाई मालिक से है और जो कोई से प्राप्त करना चाहता है, उसे उसमें यकीन करने दो। और जो कोई उससे नहीं रखता है उसे ऐसा करने दिया जाए (अल-नहल:29) ऐसा देखा गया है कि इंतेहापसंद लोग अपने विचारों को सही ठहराने के लिए मजहब का बेजा इस्तेमाल करते हैं और आवेश में आकर कई मर्तबा कुरान के संदेश की अनदेखी करते हुए भी ऐसा कर बैठते हैं जो कि हजरत मोहम्मद साहब द्वारा दिए गए सीखों के विरुद्ध है। किंतु दुख के साथ कहना पड़ता है कि बहुत से मुसलमानों ने इस्लाम के स्वरूप एवं मूलभूत शिक्षाओं को नजरअंदाज कर दिया खासकर जब भी आजादी की बात आती है।
धार्मिक संवाद की संभावना को नकारा नही जाना चाहिए
कई बार देखा गया है कि इंतेहापसंद लोगों को उनके समाज में इज्जत की नजर से देखा जाता है तथा यह माना जाता है कि सिर्फ वे ही इस्लाम के मूल स्वरूप का पालन करते हैं। बहरहाल उनकी तंगदिली सोच, अल्लाह और हजरत मोहम्मद द्वारा बताई गई समाज की धारणा से बिल्कुल मेल नहीं खाती।
यह कहा जा सकता है कि दिक्कत धार्मिक विचारधारा में नहीं है, बल्कि एक ही दिशा में सोचने की प्रक्रिया पर है जो किसी भी प्रकार के धार्मिक संवाद की संभावना को नकारता है। मुस्लिम समाज को चाहिए कि वह इस्लाम के नाम पर रूढ़िवाद की आंधी को बढ़ावा देते हुए एक सच्ची व सही धार्मिक क्रांति लाए।