पुलिस ने गोलियों से भूना

झारखंड में कॉरपोरेट घरानों के रेड कारपेट वेलकम की तैयारी के लिये रघुवर दास पर किसानों की जमीन खाली कराने का इस कदर फितूर सवार हुआ कि प्रशासन ने ऐलान कर दिया- ‘जमीन खाली कर भाग जाओ वरना मार दिये जाओगे।’ निखिल आनंद के विचार-

पुलिस ने गोलियों से भूना
पुलिस ने गोलियों से भूना

फिर अपनी जमीन, अपना वजूद बचाने के लिये निहत्थे शांतिपूर्ण व लोकतांत्रिक विरोध कर रहे 7 लोगों को दिन- दहाड़े सर्जिकल स्ट्राइक कर गोली से उड़ा दिया गया। इसी भारत की यह ऐसी घटना है जिसपर देशभर की मिडिया, भक्तों की फौज, कुछ बौद्धिक लोगों को छोड़कर सामाजिक न्याय के पुरोधा लोग भी इस बड़ी घटना पर चुप्पी साधे हुये हैं। ऐसी अनेक घटनाओं पर किसी राज्य या देश में इमोशनल आउटरेज हो जाया करता है लेकिन इन आदिवासियों के लिये नहीं हुआ क्योंकि इस समुदाय के लोग सत्तातंत्रों मसलन मिडिया, जुडिशियरी, ब्यूरोक्रेसी में नहीं है और जो सत्ता में हैं वे अपनी पार्टी- नेताओं के गुलाम, दलाल, चाटुकार, चापलूस हैं तो डर से बोलेंगे नहीं।

फिर दलित- ओबीसी नेता भी आदिवासियों से जुड़े मामले पर चुप्पी साधे नजर आते हैं क्योंकि जाति- समूह या वोटबैंक से परे उनकी सामाजिक न्याय की सम्यक वैचारिक दृष्टि बहुत कमजोर है। बहुत दुखद है। इस देश अब दलितों और पिछड़ों की एकजुटता से भी बहुत बड़ा सवाल है कि आदिवासियों की राष्ट्रव्यापी एकजुटता स्थापित हो और राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन खड़ा हो। आदिवासी समुदाय को स्थानीय स्तर पर जल- जंगल – जमीन से बेदखल किये जाने और देश- विदेश में इनकी खरीद- बिक्री- सप्लाई का दौर बदस्तूर जारी है। देश के सत्ता तंत्रों और संसाधनों में इस वक्त आदिवासियों की भागीदारी एक दुखद पहलू है।

हाशिये पर ढकेल कर इनकी प्रतिरोधी भाषा- संस्कृति- साहित्य आदि को खत्म करने की साजिश कर इनका वजूद खत्म किया जा रहा है। देश के सभी दलित व पिछड़े नेता अपने हक- हकूक, सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवाल/ मुहिम/ आंदोलन में आदिवासी समाज को अपने साथ मंच पर लायें, साथ ही उनके हर मुहिम का समर्थन करें। यहा का सबसे एबॉरिजिनल इंडिजेनियस हैबिटेट (Aboriginal Indigenous Habitats) आदिवासी का अस्तित्व नहीं बचेगा तो फिर बहुजन (Subaltern) का वजूद कैसे बचेगा, उसको भी धीरे- धीरे खत्म व खारिज हो जाना तय है। आदिवासी समाज की हर एकजुटता को और उनके हर प्रतिरोध को सरकार – सत्ता जिस तरीके अनदेखी करती है, यही नहीं नक्सलवाद के नाम पर भी आदिवासियों का बेदर्दी से पुलिस- प्रशासन, पारा मिलिट्री के हाथों दमन किया जा रहा है, तो सालवा जुडुम जैसी नीतियों के द्वारा आदिवासियों को अपने ही भाइयों के हाथों मरवाया जाता है

By Editor