अभय

झारखंड की नौकरशाही भी अब एक बड़ी चुनौती बन गयी है.शुरू से ही इन्हें नियंत्रण में नहीं रखा गया. अच्छे नौकरशाह खुद को अलग कर सिमट रहे हैं.पिछले बारह वर्षों में झारखंड के राजनेताओं ने ऐसे ही हालात बनाये हैं.

राष्ट्रपति शासन में ही झारखंड की नौकरशाही पर थोड़ा अंकुश संभव है.नेताओं की तरह झारखंड के भी कुछ स्वच्छंद नौकरशाह मानते हैं कि वे नियम-कानून और संविधान से ऊपर हैं. एक सीनियर आइएएस अफसर हैं. वह चुनाव पर्यवेक्षक बन कर एक राज्य में गये.पत्नी भी साथ थीं. ड्यूटी छोड़ कर कहीं तफरीह करने चले गये.

नियम या संवैधानिक प्रावधान है कि चुनाव क्षेत्र से बाहर नहीं जाना है.एक साल सस्पेंड भी रहे. तब से बार-बार लंबी छुट्टी लेते हैं. क्या दुनिया में कोई व्यवस्था ऐसे चल सकती है? व्यवस्था की सर्वश्रेष्ठ नौकरी, जनता के पैसे से. उसके बाद भी ऐसी हरकत कि नौकरी में घुसे, तो रिटायर ही होंगे. काम करें या न करें, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. उनका ही नहीं, किसी ऐसे अफसर का कुछ नहीं बिगड़ता.

व्यवस्था के असली राजा यही हैं.नेता, तो
आते-जाते हैं.पांच वर्ष में हारते भी हैं.पर
राजा तो नौकरशाह हैं.इस व्यवस्था में
इनकी कहीं कोई जिम्मेदारी है या नहीं?
राजाओं के शासन में भी ऐसीस्वच्छंदता
नहीं थी.माल जनता का,मौज करें अफसर

नौकरशाहों का हौसला देख लीजिए.उन्हें पता है कि झारखंड में राज्यपाल के जो दो सलाहकार आये हैं, वे अत्यंत सक्षम, साफ-सुथरे और नियम-कानून से काम करनेवाले हैं. इसलिए उनके पास कोई नहीं फटक रहा. पर अब झारखंड के ब्यूरोक्रेट दिल्ली में जाकर लाबिंग कर रहे हैं. मनचाहा पद के लिए. मुख्य सचिव के दो माह के सेवा विस्तार की फाइल को दिल्ली में बहुत महत्वपूर्ण जगहों पर दो दिन तक दबवायी गयी.

क्या अफसर, नेताओं की तरह लाबिंग कर पद पायेंगे? ऐसे अफसर, जिसके द्वारा पद पायेंगे, उसकी सेवा करेंगे या भारत के संविधान या कानून की? कुछेक वर्ष पहले झारखंड के एक बड़े नेता कुछ दिनों के लिए जेल गये, तो यह भी सूचना मिली कि बड़े-बड़े अफसर चुपचाप उनके पैर छूने जाते रहे, ताकि उन्हें कोई बड़ा ओहदा मिल जाये. आत्मसम्मान गिरवी रखनेवाले ऐसे अफसर भूल गये हैं कि वे संविधान के नौकर हैं, नेताओं के नहीं.

इस राज्य में ऐसे भी डीसी हैं, जिनके बारे में चर्चा है कि वो पांच सौ से हजार रुपये तक घूस लेते हैं. केंद्र में महत्वपूर्ण व्यक्ति के एक रिश्तेदार को अभी हाल में उपायुक्त बनाया गया है. पिछले पद पर काम करते हुए उनका रिकॉर्ड जगजाहिर है. अब वह उपायुक्त के रूप में क्या काम करनेवाले हैं, यह भी पता चलेगा? एक और अफसर को राज्य (झारखंड) में महत्वपूर्ण पद मिला है. लोगों का कहना है कि वह दिन में ही टुन्न (मदहोश) रहते हैं.

परिवहन विभाग से एक और सूचना है कि वहां से गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन का एक स्मार्ट कार्ड जारी होता है. कार्ड की कीमत है, 99 रुपये. वर्षो पहले किसी प्राइवेट पार्टी को यह काम सौंपा गया था. सूचना है कि कई वर्ष पहले ही यह कांट्रेक्ट खत्म हो गया है, पर काम वही प्राइवेट पार्टी कर रही है.

भला ऐसे राज्य चलता है?

नगर निगम के एक अफसर हैं, जिनको पूरा राज्य जानता है, वे दोनों हाथों से उलीचते हैं. पर बदस्तूर महत्वपूर्ण बने हुए हैं. पिछले बारह वर्षों की कार्यसंस्कृति में राज्य के भ्रष्ट अफसर, भयहीन हो गये हैं. राष्ट्रपति शासन में अगर कुछेक विख्यात भ्रष्ट अफसरों पर कठोर कार्रवाई होती है, तो इसका संदेश बेहतर होगा.

ऐसा ही एक मामला चेकपोस्ट का है.झारखंड बनने के बाद यह खेल शुरू हुआ. उन दिनों अखबारों में खबर भी आयी कि बाहर के एक ठेकेदार से कैसे एक आइएएस अफसर ने बीस लाख रुपये लिये? यह काम देने के लिए. सूचना है कि अब वह ठेकेदार भी भाग गया है.

वर्ष 2004-05 के बीच फिर अफसरों पर दबाव डाला गया कि इसे तुरंत करिए. एक अफसर ने इस मामले को देख कर खुद हाथ जोड़ लिया कि यह असंभव है. वह एक माह में वहां से हट गये. सरकार के छह करोड़ रुपये ठेकेदार को दे भी दिया गया. पर, चेक पोस्ट के लिए जमीन तक तय नहीं हुई थी. आज तक चेक पोस्ट नहीं बने हैं. इससे राज्य को पचास हजार करोड़ से अधिक के नुकसान का अनुमान है.

सूचना है कि परिवहन विभाग में एक अत्यंत ईमानदार अफसर आये हैं. वह गंभीरता से इस मामले को देख रहे हैं. यह भी सूचना है कि वह दोषी अफसरों के खिलाफ जांच के लिए सरकार को लिख चुके हैं.
हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. यह भी चर्चा है कि ऐसी रिपोर्ट न देने के लिए भी कोशिश हुई.

प्रभात खबर

By Editor