गज़ल गायकी के शहंशाह मेहदी हसन जब राजस्थान के झुंझुनू अपने खानदानी घर आये थे तो वह मंदिर के करीब रेत में आखिर क्यों लोटपोट होने लगे थे ? 13 जून को उनकी बरसी है  रमेश सर्राफ धमोरा उनकी याद ताजा कर रहे हैं.MEHANDI HASSAN -1

मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे। मेहंदी हसन की गायी यह गजल आज यथार्थ बन गयी है । 13 जून 2012 को पाकिस्तान के कराची शहर में पूरी दुनियां में अपने चाहने वालों को बिलखता छोड़ मेंहदी हसन इस दुनिया से दूर जा चुके हैं,अब हमें याद रहेंगी तो बस उनकी गायी अमर गजलें व उनकी यादें।

मेहंदी हसन कहते थे कि बुलबुल ने गुल से,गुल ने बहारों से कह दिया,एक चौदहवीं के चांद ने तारों से कह दिया,दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं,एक दिलरूबा है दिल में,तो हूरो से कम नहीं। उनके गले से निकले यह शब्द हर प्यार करने वाले की आवाज बन जाते हैं। उनकी गजलों ने जैसे लोगों के अन्दर का खालीपन पहचान कर बड़ी खूबी से उस खालापन को भर दिया।

 भारत से लगाव

पाकिस्तानी गजल गायक मेहंदी हसन का भारत से विशेष लगाव रहा था। उन्हे जब भी भारत आने का मौका मिला वे दौड़े चले आते थे।  शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती रही थी । यहां की मिट्टी से उन्हे सैदव एक विशेष प्रकार का लगाव रहा था इसी कारण पाकिस्तान में आज भी मेहंदी हसन के परिवार में सब लोग शेखावाटी की मारवाड़ी भाषा में बातचीत करतें हैं। मेहंदी हसन ने सदैव भारत-पाकिस्तान के मध्य एक सांस्कृतिक दूत की भूमिका निभाई तथा जब-जब उन्होने भारत की यात्रा की तब-तब भारत-पाकिस्तान के मध्य तनाव कम हुआ व सौहार्द का वातावरण बना।

 

भारत से पाकिस्तान जाने के बाद मेहंदी हसन पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना चुके थे। 1978 में मेहंदी हसन जब अपनी भारत यात्रा पर आये तो उस समय  गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे और उनकी इच्छा पर प्रशासन द्वारा उन्हें उनके पैतृक गांव राजस्थान में झुंझुनू जिले के लूणा ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। गांव में सडक़ किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर बना था, जहां वे रेत में लोटपोट होने लगे ।

उस समय जन्म भूमि से ऐसे मिलन का नजारा देखने वाले भी भाव विभोर हो उठे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों।  उन्होंने बताया कि वे बचपपन में यहां बैठ कर वे भजन गाया करते थे। जिन लोगों ने मेहंदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है-मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।

1993 में मेहंदी हसन एक बार पुन: लूणा गांव आये मगर इस बार अकेले नहीं बल्कि परिवार सहित। इसी दौरान उन्होने गांव के स्कूल में बनी अपने दादा इमाम खान व मा अकमजान की मजार की मरम्मत करवायी व पूरे गांव में लड्डू बंटवाये थे। आज मजार बदहाली की स्थिति में वीरान और सन्नाटे से भरी है। यह मजार ही जैसे मेहदी हसन को लूणा बुलाती रहती है। मानो रेत के धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए। उस वक्त उनके प्रयासों से ही गांव में सडक़ बन पायी थी।

लूणा गांव में मेहदी हसन के पुरखों का मजार
लूणा गांव में मेहदी हसन के पुरखों का मजार

राजस्थान के झुनझुनू में जन्म

मेहंदी हसन का जन्म 18,जुलाई 1927 को राजस्थान के झुंझुनू जिले के लूणा गांव में अजीम खां मिरासी के घर हुआ था। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से पहले उनके बचपन के 20 वर्ष गांव में ही बीते थे। मेहंदी हसन को गायन विरासत में मिला। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान भी अच्छे कलाकार थे इस कारण उस वक्त भी उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।

 

पाकिस्तान जाने के बाद भी मेहंदी हसन ने गायन जारी रखा तथा वे ध्रुपद की बजाय गजल गाने लगे। वे अपने परिवार के पहले गाायक थे जिसने गजल गाना शुरू किया थ। 1952 में वे कराची रेडिय़ो स्टेशन से जुडकर अपने गायन का सिलसिला जारी रखा तथा 1958 में वे पूर्णतया गजल गाने लगे।

 

मेहंदी हसन ध्रुपद,ख्याल,ठुमरी व दादरा बड़ी खूबी के साथ गाते थे। इसी कारण कोकिला कण्ठ लता मंगेशकर कहा करती हंै कि मेहंदी हसन के गले में तो स्वंय भगवान ही बसते हैं। पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है जैसी मध्यम सुरों में ठहर-ठहर कर धीमे-धीमे गजल गाने वाले मेहंदी हसन केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश जैसी राजस्थान की सुप्रसिद्व मांड को भी उतनी ही शिद्दत के साथ गाया है। उनकी राजस्थानी जुबान पर भी उर्दू जुबान जैसी पकड़ थी।

मेहंदी हसन की झुंझुनू यात्राओं के दौरान उनसे जुड़े रहे नरहड़ दरगाह के पूर्व सदर मास्टर सिराजुल हसन फारूकी ने बताया कि मेहंदी हसन साहब की झुंझुनू जिले के नरहड़ स्थित हाजिब शक्करबार शाह की दरगाह में गहरी आस्था थी,वो जब भी भारत आये तो नरहड़ आकर जरूर जियारत करते रहें हैं। उनका कहना है कि मेहंदी हसन की याद को लूणा गांव में चिरस्थायी बनाये रखने के लिये  सरकार द्वारा उनके नाम से लूणा गांव में संगीत अकादमी की स्थापना की जानी चाहिये ताकि आने वाली पीढिय़ां उन्हे याद कर प्रेरणा लेती रहें।

मेहंदी हसन के बारे में मशहूर कब्बाल दिलावर बाबू का कहना है कि यह हमारे लिये बड़े फक्र की बात है कि उन्होने झुंझुनू का नाम पूरी दुनिया में अमर किया। उन्होने गजल को पुनर्जन्म दिया। दुनियां में एसे हजारों लोग है जो उनकी वजह से गजल गायक बने। उनहोने गजल गायकी को एक नया मुकाम दिया।

लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। मेहंदी हसन के बचपन के साथी नारायण सिंह की उम्र 92 वर्ष होने के उपरान्त भी उन्हे मेहंदी हसन से जुड़ी तमाम बातें याद हैं जिन्हे वो गांव आने वाले पत्रकारों को सुनाते हैं। उन्होने बताया कि बचपन में मेहंदी हसन को गाायन के साथ पहलवानी का भी शौक था। मेहंदी हसन अपने साथी नारायण सिंह व अर्जुन लाल जांगिड़ के साथ कुश्ती में दावपेंच आजमाते थे।

वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोडक़र जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है। मेहंदी हसन की मृत्यु होने की खबर सुनकर लूणा ग्राम सहित पूरे झुंझुनू जिले में में शोक की लहर दौड़ गयी थी।

रमेश सर्राफ धमोरा राजस्थान के झुंझुनू में रहते हैं और स्वतंत्र पत्रकार हैं

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