आजकल दलित मुसलमान की चर्चा जोरां पर है। निचले सामाजिक पायदान पर ढकेले गये मुस्लिम लोग अब संगठित होने लगे हैं तथा अनुसूचित जातियों को मिलने वाले संवैधानिक लाभ की ओर आशा भरी निगाह लगाये हुए हैं।

 

दलित मुस्लिम का आरक्षण

 

आजकल दलित मुसलमान की चर्चा जोरां पर है। निचले सामाजिक पायदान पर ढकेले गये मुस्लिम लोग अब संगठित होने लगे हैं तथा अनुसूचित जातियों को मिलने वाले संवैधानिक लाभ की ओर आशा भरी निगाह लगाये हुए हैं।

इं० राजेन्द्र प्रसाद

 निचले सामाजिक पायदान पर ढकेले गये मुस्लिम लोग अब संगठित होने लगे हैं तथा अनुसूचित जातियों को मिलने वाले संवैधानिक लाभ की ओर आशा भरी निगाह लगाये हुए हैं।

 

 

 

इसके लिए वे गोष्ठियों अभ्यावेदनों, सम्मेलनों से लेकर डॉ० आंबेडकर पर भी प्रश्न करते हैं कि उन्होंने संविधान में मुसलमानों के लिए धार्मिक प्रतिबंध क्यों लगाये ? मूल संविधान में हिन्दू दलितों को ही अनुसूचित जाति का माना गया

है । सन् 1950 में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की पहली सूची प्रकाशित की गई ।1956 में सिक्ख तथा 1990 में बा ैद्ध धर्मावलम्बियों के दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया ,तद्नुसार राष्टंपति द्वारा अधिसूचना जारी की गई।

 

यह एक मौजू सवाल है और इसका सटीक उत्तर भी दिया जाना चहिए। पसमांदा अर्थात दलित-पिछड़े मुसलमानों के शक-शुबहे को दूर किया जाना चाहिए। अछूत दलितों कों अनुसूचित जातियों का जो लाभ मिला, वह 20 वीं सदी के प्रारम्भ में उनके लम्बे समय तक चले कठिन संघर्ष, धर्मान्तरण की घोषणा और ब्राह्मणवाद को दिये गये एक गंभीर चुनौती के कारण 1932 में हुए समझौते 1⁄4 पूना पैक्ट 1⁄2 क े तहत प्राप्त हुआ है। ज्ञातव्य है कि सिक्खों और बाैद्धों की उत्पत्ति और परम्परा ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह के रूप में हुई और वह हिन्द ुओं स े ही निकले सम्प्रदाय है । जैन, सिक्ख और बाैद्ध हिन्दू कोड बिल के तहत ही शासित होते हैं जिसके अन ुसार विवाह, तलाक, उत्तराधिकार एवं अन्य सामाजिक-धार्मिक मामले आते है।

 

 

 

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आज भी पंजाब या सिक्ख जनसंख्या वाले इलाके में जो परिवार हिन्दू हैं उनके आधे सदस्य हिन्दू और आधे या चौथाई सदस्य सिक्ख हैं। उनमें यानी हिन्दू और सिक्खों की जातियों म ें शादी-ब्याह, खान-पान सामान्य है। उसी प्रकार यही स्थिति बाैद्ध परिवारों की भी है। इस कारण दलित सिक्खों और बाैद्धों को अन ुसूचित जाति की स ुविधा प्रदान की गई। लेकिन यह बात मुस्लिम परिवारों में कतई नहीं है।

 

 

इनके लिए अलग मुस्लिम कानून हैं,जिसे मुस्लिम पस र्नल लॉ कहा जाता है। छोटी या बड़ी जाति का मुस्लिम व्यक्ति सामान्यतः अपनी जाति के मुस्लिम धर्मावलम्बी के यहाँ ही शादी ब्याह, रोटी-बेटी का रिश्ता करता है। इसलिए धर्म के मामले में सिक्खों-बौद्धों की स्थिति मुसलमानों से एकदम भिन्न है। साथ ही जाति-पाति और छुआछ ूत की अवधारणा जिस तरह हिन्दू धर्म में है, वैसी अवधारणा इस्लाम धर्म में नहीं है। यही कारण है कि मुसलमानों को अनुसूचित जातियों का लाभ नहीं मिलता है। उन्हें यह नहीं पता है कि बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई धार्मिक प्रतिबंध नहीं लगाया है । जनजातियां प्रकृति को मानती हैं और संपूर्ण समाज से अलग आदिम समाज की तरह रहती हैं । जनजातियों की विशिष्ट सामाजिक स्थिति दलितों से बिल्कुल भिन्न है । इसलिए मुस्लिम धर्मावलम्बियों को अनुसूचित जनजातियों का लाभ मिलता है, अनुसूचित जातियों का लाभ नहीं मिलता है ।

 

 

जिस प्रकार अछूत दलितों ने हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रचण्ड विद्राेह किया, धर्म परिवर्तन तक की धमकी दी, वैसा आंदोलन आजादी के पूव र् या बाद में मुसलमानों क े किसी भी संगठन ने अशराफ मुसलमानों द्वारा किये गये भेदभाव क े खिलाफ नहीं चलाया और न अपनी प्रताड़ना के लिये उन्हें कड़ी चुनौती दी। आज भी वे उन्हें चुनौती नहीं दे रहे हैं।

 

मानवता के सम्मान पर क्या है इस्लामी नजरिया

 

 

सिर्फ माँग कर रहे हैं, जो सांसद विधायक बनने के लिये दॉँव-पेंच से ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ लोग कभी-कभी बिना जाने-बूझे डॉ० आंबेडकर पर प्रश्न उठाने लगते हैं,कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। वे यह सोचते हैं कि ऐसा करके उन्हें शायद वह लाभ मिल जायगा, जाे अन्य दलितों को मिल रहा है। वत र्मान व्यवस्था में दलित मुसलमानों को अत्यन्त पिछडे़ वर्गो में शामिल करके आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। इसके बावजूद अशफाक हुसैन अंसारी, अली अनवर जैसे कुछ लोग उन के लिए अन ुसूचित जाति के दजेर् की माँग कर रहे हैं। उन्हें सरकारी सेवाओं एवं स्थानीय निकायों में अति पिछड़े वर्ग का आरक्षण मिला हुआ है। इससे वे संतुष्ट नहीं हैं।

 

अनुसूचित जाति के माध्यम से वे संसद और विधान सभाओं में आरक्षण चाहते हैं। इस माँग के पीछे इनकी मंशा भी यही है। अशराफ यानी ऊँची जाति के मुसलमानों द्वारा सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के नाम पर अलग ‘मुस्लिम-आरक्षण’ की माँग की जा रही है, जिसका विरोध पसमांदा मुसलमानों द्वारा ठीक ही किया जा रहा है। अनुसूचित जातियों एवं हिन्दू धार्मिक-सामाजिक संगठनों द्वारा भी पसमांदा या दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की माँग का विरोध हो रहा है। कुछ दलित नेता और मायावती जैसे लोग दलित मुसलमानों को इस शर्त के साथ अनुसूचित जाति के आरक्षण के हिमायती हैं कि उनकी जनसंख्या की गणना के अन ुरूप आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर ही उन्हें शामिल किया जाय, अंन्यथा नहीं। सम्पूर्ण मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षण का भी विरोध हो रहा है। केवल राम विलास पासवान जैसे लाेग जब सत्ता में नहीं रहते हैं तो मुसलमानों की सभी माँगों का समर्थन करते है, धरना और बयान भी देते हैं पर सत्ता मिलते ही मौनी बाबा या पलटू दास बन जाते हैं।

 

 

 

दलित मुसलमानों को बाबासाहब आंबेडकर की पुस्तक ’’पार्टिशन ऑफ इन्डिया अथवा पाकिस्तान’’ प्रथम प्रकाशन वर्ष 1940 , कुल पृष्ठ 515 का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए। यह गूगल पर डॉ0 आंबेडकर राइटिंस एण्ड स्पीचेज वाल्युम 8 के रूप में है, पढ़ा जा सकता है । इसका एक अध्याय सोसल स्टेगन ेशनस् 1⁄4सामाजिक जड़ता1⁄2 पृष्ठ 225 – 248 ज्ञानवर्द्धक है। जिसमें आंबेडकर ने स्पष्ट लिखा है कि अछूताें ने अपनी इस सामाजिक बुराई के खिलाफ विद ्रा ेह किया है जिस कारण हिंदु सुधारक सक्रिय हुए,उसे बुराई माना। स ुधार के कार्य आरंभ हुए ।

 

 

लेकिन जहां तक मुसलमानों में सामाजिक बुराइयों का प्रश्न है वह भी काफी तकलीफदेह हैं और यह बुराइयां हिन्दुओं से कुछ ज्यादा ही है। यह दुखद है कि मुसलमान इसे बुराइ र् नहीं मानते हैं, वे किसी भी सुधार का उग्र विरोध करते हैं । वे दावत की राजनीति में व्यस्त रहते हैं । उसी प्रकार बाबासाहब आंबेडकर ने धर्मान्तरित ईसाइयों की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण राइटि ंग्स एण्ड स्पीचेज वाल्यूम-5 के अपन े आलेख ‘कि्रश्चियनाइजिंग दी अनटचेबलस‘ और ‘कन्डिसनस ऑफ दी कनवट र् ’पेज 426-476 में किया है । यह गूगल पर भी है। सिक्खों में भी उन्हें यही स्थिति दिखाई दी ।

 

 

 

डॉ0 आंबेडकर ने 1936 में जाति पांति तोडक मंडल लाहौर के वार्षिक अधिवेशन में दिए जाने वाले लिखित भाषण में जातिभेद के दंश को समाप्त करने के लिए अन्तर्जातीय विवाह के कान ून तथा जाति और वर्ण व्यवस्था से संबंधित हिन्दू धार्मिक कानूनों एवं मान्यताओं पर चोट करने का आह्वान किया। इस लेख में जाति व्यवस्था के दुष्प्रभावों और उसके उन्मूलन के उपायों पर गम्भीर चर्चा की गई है । प्रख्यात समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने अपनी पुस्तक ‘डॉ0 आंबेडकर : एक चिंतन’ के पृष्ठ 18 में स्पष्ट लिखते हैं कि ‘‘यह भाषण जाति व्यवस्था पर डॉ0 अम्बेडकर की सबसे प्रभावशाली कृ ति है।

 

 

यह निर्मम तर्क और युक्ति पर आधारित है। तथापि इसमें इतनी आग है कि इसकी तुलना कार्लमार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो से ही की जा सकती है। हम भारतीयों के लिए तो यह कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो से भी अधिक प्रसांगिक है। उन्होंने आगे कहा कि जो भी भारतीय यह चाहता है कि उसके देश बंधुओं का न्याय मिले और यह देश महान और मजबूत बने वह असमानता के इस सशक्त आरोप पत्र की उपेक्षा नहीं कर सकता है। मैं इस महान घोषणा पत्र और इसके लेखक के प्रति अत्यन्त आदरपूर्वक नतमस्तक हूँ । यह करुणापूरित मन का आक्रंदन है। इसमें वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ साथ कर्त्तव्य का आह्वान भी है। ऐसी सामाजिक क्रान्ति का आह्वान जो भारत के इतिहास में कभी नहीं हुई ।’’

 

आंबेडकर का यह भाषण हिन्दू धर्माचार्यों के अलावा देश के समाज सुधारकों और समाजवादियों-साम्यवादियों को भी सम्बोधित किया गया है । पर इसकी अनदेखी और उपहास के कारण डॉ0 अम्बेडकर हिन्दू धर्म में सुधार की गति और सुधारकों के कार्यकलापों से निराश हुए । इसके 20 वर्षों के बाद डॉ0 आंबेडकर ने 1956 में धर्म परिवत र्न कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । इस 20 वर्ष के बीच विभिन्न धर्मों क े धर्माचार्यों द्वारा उन्हें अपने अपने धर्म में शामिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के कसमें वादे किए गए । डॉ0 आंबेडकर सबका सुनत े रहे, आत्ममंथन करते रहे, किसी को कुछ वादा नहीं किए । इस दरम्यान वे इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और सिक्ख धर्म के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पहलुओं का बारीक विश्लेषण करते रहे ।

 

 

 

इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और सिक्ख धर्म में पहले से परिवर्तित जातियों के सामाजिक और वास्तविक स्थितियों का उन्होंने विस्तार से अध्ययन किया । वहाँ उन्हें चौंकाने वाले तथ्य मिले । इन कारणों से डॉ0 आंबेडकर का आकर्षण इस्लाम, ईसाई, और सिक्ख धर्म के प्रति उत्तरोत्तर कम होता गया । तब वे बौद्ध धर्म की ओर मुड़े वहाँ कि जमीन खाली थी। जहाँ वे अपने तरीके से उपजातियों को विलीन कर एक समतावादी समाज बना सकते थे । अतः उन्होंने हिन्दू धर्म की विभिन्न जातियों-उपजातियों को इक्कठा कर जातिवाद को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय किया । उन्होंने एक ठोस जातिविहीन समाज बनाना चाहा, एक मजबूत समतामूलक बौद्ध समाज बनाने की पहल की।

 

 

 

 

इसी बीच डॉ0 आंबेडकर की मृत्यु हो गई। क्या आज बाबासाहब के अनुयायी बौद्ध उनके सपनों को पूरा कर रहे हैं ? क्या वे बौद्धों का एक जातिविहीन समाज बना रहे हैं ? यह दुखद है कि आज बाबासाहब के अधिकांषतः बौद्ध अनुयायी, बौद्ध धर्म में भी जाति को समाप्त करने की बजाय जाति का जहर ही फैला रहे हैं। वहाँ भी वे नव-बौद्ध, अछूत बौद्ध से लेकर जातिरुपी बौद्ध बन गए हैं । क्या ये सभी बौद्ध बाबासाहब के सिद्धान्तों और सपनों को ध्वस्त नहीं कर रहे हैं ? ये नव बौद्ध न क ेवल बाबासाहब के सपनों को ध्वस्त कर रहे हैं वरन दलितों के मुक्ति के मार्ग में कांटे भी बिछाते जा रहे हैं । क्या बाबासाहब के बौद्ध अन ुयायी और अन ुसूचित जाति के व्यक्ति अपने आचरणों और कार्यों की समीक्षा करेंगे? क्या वे बाबासाहब के सपनों को पूरा करेंगे ?

 

 

 

पसमांदा मुसलमान लम्बे समय तक अपने को मुसलमान एक यूनिट है, ऐसा मानते रहे, भेदभाव से इंकार करते रहे। हिन्दुओं के भेदभाव की आलोचना करते थे। दलितों की लड़ाई से प्रेरणा लेने की बजाय मूकदर्शक बने रहते थे आैर अवसर आने पर उन्हें मुसलमान बनाने का आमंत्रण भी देते रहे कि देखो हमारे मुसलमानों में भेदभाव नहीं है। तुम्हारे यहाँ जलालत की जिन्दगी है, उससे उबरो, इस्लाम अपनाओ । इन स्थितियों में परिवत र्न तब आया जब वे दलितों द्वारा लड़कर प्राप्त की गई सफलता और उसके लाभ को द ेख कर उन्हें प्रेरणा मिली। पर वे वैसा प्रयास नहीं कर रहे हैं जैसा प्रयास दलितों ने किया था। पसमांदा मुसलमानों को बेहतर और मानवीय जिन्दगी जीने के लिए कठिन संघर्ष और कठोर निर्णय लेने वाले नेतृत्व की जरूरत है, जैसा कि बाबासाहब डॉ0 आंबेडकर ने संघर्ष के साथ ही साथ धर्म परिवत र्न का भी बिगुल फूँका था। क्या पसमांदा मुसलमान अपने भेदभाव के विरुद्ध बिगुल फूँकने को तैयार हैं ?

 

 

 

यदि उन्हें वाकई मुसलमान के रूप में हिन्दू दलितों से ज्यादा कष्ट है, तो क्यों नहीं वे पुनः हिन्दू धर्म में वापस आने का शंखनाद करते हैं ? यदि वे वैसा करेंगे तो उन्हें स्वतः ही अनुसूचित जाति की सुविधाएं प्राप्त हो जायेंगी और वे संवैधानिक संरक्षणों का उपभोग भी अपने उत्थान के लिए कर सकेंगे। साथ ही दलित और हिन्दू संगठन भी इसका विरोध नहीं करेंगे, बल्कि वे खुशी-खुशी सौहाद र्पूर्वक उसका स्वागत करेंगे, सुविधाओं के उपभेग करने में मदद करेंगे। यदि दलित मुसलमान ऐसा कर सकें, तो मुस्लिम समाज में भी नवजागरण की शुरूआत होगी, जिसके भूकम्पी झटके से मुस्लिम समाज में सामाजिक परिर्वतन और सामाजिक न्याय की गति तीव्र होगी। मुल्ले-मौलवियाें और मुस्लिम समाज के रहन ुमाओं द्वारा समाज में व्याप्त व्यावहारिक कुरीतियों और कुप्रथाओं को खत्म करने की कोशिशों में गतिशीलता आयेगी, जो अंततः इस्लाम धर्म के समानतावादी सिद्धान्त को ही पुष्ट करेगा। क्या दलित मुसलमानों का नेतृत्व वर्ग ऐसा करेगा और अशराफ मुसलमानों की पाेल खोलेगा ? देखें आने वाले कल में दलित या पसमांदा मुसलमान अपने हकों को प्राप्त करने के लिए कौन सी रणनीति अपनाते हैं।

 

 

By Editor