उत्तर प्रदेश में हमेशा से वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होने वाले मुसलमान इस बार दुविधा में हैं।
अंशुमान शुक्ल
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में भी अपने खैरख्वाहों के दावों में उलझे मुसलमान यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि उनका उसली शुभचिंतक है कौन। कभी वह समाजवादी पार्टी (सपा) की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं तो कभी उनकी निगाहें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप) की तरफ मुड़ जाती हैं।
प्रदेश की 28 लोकसभा सीटों पर हार-जीत का अंतर तय कर पाने की क्षमता के बाद भी संसद में मुसलिम सांसदों की उत्तर प्रदेश से नुमाइंदगी दस फीसद से भी कम रही है। मुसलिम सांसदों की कम संख्या इस बात का संकेत है कि मतों के ध्रुवीकरण की राजनीतिक दलों की चाल हर लोकसभा के चुनाव में मतदाताओं की इस बिरादरी के सांसदों की रफ्तार को बेहद कम कर देती है।
कितने मुस्लिम सांसद
देश में हुए पहले लोकसभा चुनाव से अब तक उत्तर प्रदेश की सीटों की संख्या की तुलना में मुसलमान सांसदों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। साल 1952 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से सात मुसलिम जीत कर संसद तक पुहंचे थे। 1957 में यह संख्या घट कर छह रह गई। जबकि 1962 में पांच और 1967 के लोकसभा के चुनाव में छह मुसलमान ही संसद पहुंच पाए। 1971 के लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश से 16 मुसलमान सांसद बने थे। वहीं 1977 में दस, 1980 में 18 मुसलमान संसद पहुंचे। साल 1984 में 12, 1989 में आठ, 1991 में तीन, 1996 में छह, 1998 में छह, 1999 में आठ और 2004 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से चुनकार जाने वाले मुसलमान सांसदों की संख्या 11 थी। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश से केवल सात मुसलमान सांसद चुने गए।
अधिकांश लोकसभा चुनाव में मुसलमान सांसदों की संख्या दहाई तक न पहुंचने की बड़ी वजह देश के प्रमुख राजनीतिक दल हैं। राजनीति के जानकार कहते हैं कि हर लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का रहनुमा बताने की राजनीतिक दलों में होड़ सी मच जाती है। इसके लिए ऐसे बयानों का सहारा लिया जाता है जिसका कौम की भलाई और बढ़ोत्तरी से कोई सरोकार नहीं होता। मसलन हाल ही में सपा के वरिष्ठ नेता आजम खां ने करगिल युद्ध की जीत की बड़ी वजह मुसलमान सैनिकों को ठहरा कर मुसलमानों को सपा खेमे में लाने की कोशिश की। भले ही उनके इस बयान से
अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव की किरकिरी हुई। लेकिन दोनों नेताओं ने आजम खां का बचाव कर यह साफ कर दिया कि उनकी नजर किस तरफ है।
मुस्लिम आबादी
बसपा और कांग्रेस भी किसी भी तरह मुसलमान वोटों को अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश में है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि उत्तर प्रदेश में ऐसा क्या है जिससे आकर्षित होकर राजनीतिक दलों के आका मुसलमानों को अपने पक्ष में करने पर पूरी ताकत झोंक देते हैं। इसका जवाब यहां की 28 लोकसभा सीटों में छिपा है। इन सीटों पर मुसलमान मतदाताओं की जनसंख्या इतनी है कि वह किसी भी दल के उम्मीदवार की हार-जीत की तदबीर लिख सकते हैं। इनमें रामपुर सर्वप्रथम हैं, जहां मुसलमान मतदाता 42 फीसद हैं। मुरादाबाद में 40, बिजनौर में 38, अमरोहा में 37, सहारनपुर में 38, मेरठ में 30, कैराना में 29, बलरामपुर और बरेली में 28, संभल, पडरौना और मुजफ्फरनगर में 27, डुमरियागंज में 26 और लखनऊ, बहराइच व कैराना में 23 फीसद मुसलमान मतदाता हैं। इनके अलावा शाहजहांपुर, खुर्जा, बुलंदशहर, खलीलाबाद, सीतापुर, अलीगढ़, आंवला, आगरा, गोण्डा, अकबरपुर, बागपत और लखीमपुर में मुसलिम मतदाता कम से कम 17 फीसद हैं।
अब बड़ा सवाल यह उठता है कि 28 सीटों पर वर्चस्व होने के बाद भी मुसलमान सांसदों की संख्या इतनी कम क्यों है। इस सवाल का जवाब सीधा है जो सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों के मुसलिम प्रत्याशियों की संख्या से पता चलता है। मुसलमान मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए इस लोकसभा के चुनाव में बसपा ने 19 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। कांग्रेस ने 11, सपा ने 13 और आप ने 12 यानी 28 सीटों पर 55 मुसलमान उम्मीदवार। राजनीतिक दलों के इस समीकरण से साफ है कि वे प्रत्येक मुसलमान मतदाताओं की दखल वाले लोकसभा क्षेत्र में मुसलमान उम्मीदवारों को उतार कर उनके मतों का विभाजन करने की पुरजोर कोशिश करते हैं।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में हर लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को दुविधा में डालने की ऐसी चाल चली जाती है जिससे पार पाना कठिन है। इसी कठिनाई की वजह से प्रत्येक लोकसभा के चुनाव में मुसलमान सांसदों की संख्या बेहद कम रहती है। इसका सीधा असर मुसलमानों पर पड़ता है और वे वोट बैंक बनकर रह जाते हैं।
*प्रदेश की 28 सीटों पर जीत-हार का अंतर तय करने की क्षमता रखते हैं
*सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव में प्रमुख दलों ने 51 मुसलमानों को दिए हैं टिकट