इस क्रूर, वहशी और दरिंदा होते समाज में हम खुद पर शर्म करने के लायक भी नहीं बचे हैं. हम एक महिला के बलात्कार के ऐसे आरोपी को 8 किलो मिटर तक घसीट-घसीट कर मार देते हैं जिसके रेप की पुष्टि ही नहीं हई.
इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन
इस बर्बर और सुनियोजित मामले में बताया जा रहा है कि पुलिस की मिलीभगत है. एनडीटीवी ने एक आला अफसर के हवाले से कहा भी है कि इस मामले में पुलिस ने भीड़ की मदद की. उस अफसर का कहना है कि सैयद फरीद खान को सैकड़ों कैदियों की भीड़ में से पहचानने में भी जेल प्रशासन ने मदद की. यह घटना नागालैंड के दीमापुर में हुई.
हालांकि आरभिंक जांच रिपोर्ट में यह साबित हुआ है कि जिस नागा लड़की के रेप के आरोप में युवक को गिरफ्तार किया गया उस लड़की का रेप हुआ ही नहीं है. लेकिन यह मान भी लिया जाये कि अगर वह युवा बलात्कारी था तो भी भीड़ ने जिस तरह से कानून का मजाक उड़ाया और जेल प्रशासन ने उस भीड़ की मदद की तो यह हृदय बैठा देने वाली घटना है. क्योंकि अगर कानून के रखवाले ही गुंडा गिरोह के साथ आ जाये तो इस तंत्र को कभी भी कानून का तंत्र नहीं कहा जा सकता है. ऐसी घिनौनी करतूत तो राक्षसी समाज में भी शायद ही मिले जहां एक आरोपी को आठ किलो मिटर तक हजारों की भीड़ घसीटती रहे, उसके गुप्तांगो को काटा जाये, फिर घसीटा जाये और उस वक्त तक मारा-पीटा जाये जब तक कि वह तड़प-तड़प कर मर न जाये.
सवाल
यह क्रूरता घंटों चलती रही और पुलिस प्रशासन बेपरवाह तमाशाई बनी रहे. एक बात और गौर करने की है कि आरोप लगने के बाद पुलिस ने आरोपी को कोर्ट में पेश किया. उसे कोर्ट के आदेश से जेल भेज दिया गया. जेल जाने के चार दिन बाद हजारों की भीड़ ने जेल के दरवाजे तोड़े, और कैदी वार्ड में मौजूद दर्जनों लोगों के बीच से उसकी पहचान जेल प्रशासन से करवाई गयी और घसीट के बाहर निकाला गया. वाह रे जेल प्रशासन!! क्या कानून के ऐसे रखवालों को बख्शा जाना चाहिए?
इस पूरी घटना के विश्लेषण से तीन महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं.
पहला– आखिर हमारा इतना क्रूर और बेरहम कैसे होता जा रहा है. क्या यह सामुदायिक घृणा का मामला है, जिसकी प्रेरणा हाल के कुछ वर्षों में अतिवादी राजनीतिक और साम्प्रदायिक नेतृत्व के घृणित वक्तव्यों से मिली है?
दूसरा – क्या हिंसा और क्रूरता को बढ़ावा देने के लिए हमारे समाज में संगठित तौर पर कार्रवाई चल रही है, क्योंकि दीमापुर की घटना में दस हजारो लोगों का एकत्र हो जाना बिना किसी संगठित अपराधिक तंत्र के संभव नहीं दिखता.
और तीसरा– दीमापुर का जेल प्रशासन और जिला पुलिस ने इस घटना को अंजाम देने के लिए अपनी स्वीकृति जिस तरह से दी उससे पुलिस तंत्र से विश्वास न उठने का कोई कारण नहीं दिखाता. क्योंकि आरोपी युवा को आठ किलो मिटर तक घसीटने में 4-5 घंटे का वक्त लगा और पुलिस ने न सिर्फ इस में भीड़ की मदद की बल्कि जेल प्रशासन ने तो उस युवा की पहचान करने में भी रोल अदा किया.
परिणाम
यह सर्वमान्य है कि हिंसा कभी हिंसा को खत्म नहीं कर सकती. बल्कि हिंसा, हिंसा और आतंकवाद को जन्म देती है. ना इंसाफी, हिंसा और अतिवाद को बढ़ाती है. जिस समाज में इंसाफ और कानून का राज नहीं होगा वहां आतंकवाद के पनपने के व्यापक मौके मिलते हैं.
दीमापुर की घटना के ऊबाल का असर असम तक पहुंच चुका है. वहां प्रदर्शन हो रहे हैं. असम के प्रशासन ने अगर इस प्रदर्शन को उचित तरीके से निंयत्रित नहीं किया तो हिंसा बढ़ने का भी खतरा है.
हालांकि इस मामले में नागालैंड पुलिस ने 22 लोगों को गिरफ्तार किया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पूरे प्रकरण में दोनों पक्षों को इंसाफ मिलेगा.