नगालैंड और आगरा दोनों ख़तरे की दो घंटियाँ हैं. देश के तमाम वर्गों और समुदायों में धर्म, जाति और आर्थिक अवसरों को लेकर टकराव, कटुता, असुरक्षा, विषमता, चिन्ताएँ और घृणा लगातार बढ़ती जा रही है. और इसमें भी सबसे ख़तरनाक बात है पुलिस-प्रशासन की मौन पक्षधरता! इस रास्ते हम कहाँ जाना चाहते हैं?
कमर वहीद नकवी
देश में यह हो क्या रहा है? नगालैंड के बाद अब आगरा से वैसी ही दिल दहला देनेवाली एक ख़बर आयी है. शहर के बीचोबीच एक बस्ती में इसी हफ़्ते मुहल्लेवालों ने पीट-पीट कर एक नौजवान की हत्या कर दी. उस पर आरोप था कि नशे में उसने अश्लील हरकत की. जीतू नाम का यह लड़का उसी मुहल्ले का था. कहीं बाहर से नहीं आया था. आगरा और नगालैंड में इतना ही फ़र्क़ है. नगालैंड में बलात्कार के आरोप में मारा गया फ़रीद बाहरी था. कहा जा रहा है कि भीड़ इसलिए बेक़ाबू हो गयी कि उसे बांग्लादेशी समझ लिया गया. नगालैंड में बाहरी लोगों, ख़ासकर बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ से स्थानीय जनता बेहद उत्तेजित है. कहा जा रहा है कि ग़ैर-नगा आबादी के ख़िलाफ़ नगा लोगों में भीतर ही भीतर सुलग रहे ज्वालामुखी को अचानक भड़का दिया गया और पुलिस और स्थानीय प्रशासन बस मुँह फेर कर बैठे रहे.
पुलिस हो, न हो!
दोनों ही घटनाओं के कुछ अहम सवाल हैं! दोनों हत्याएँ भीड़ ने कीं. नगालैंड की भीड़ हज़ारों की थी, आगरा की भीड़ चन्द लोगों की थी. आगरा की भीड़ आरोपी को जानती-पहचानती थी क्योंकि वह उसी मुहल्ले का था. उसकी माँ ने उसे एक-दो थप्पड़ लगा कर भीड़ से बचाने की भी कोशिश की. लेकिन लोग उसे लाठी, डंडों, लात-जूतों से पीटते रहे, पानी डाल-डाल कर पीटते रहे
पुलिस वहाँ पहुँची ही नहीं या शायद किसी ने पुलिस को ख़बर ही नहीं की. पुलिस कहती है कि उसे लोगों ने एक-दो हाथ लगाये और वह नशे में था, रात में मर गया! नगालैंड में सब कुछ पुलिस के सामने हुआ. जेलवालोंका भी कहना है कि उन्होंने आरोपी को छिपाने की पूरी कोशिश की, लेकिन किसी तरह भीड़ को पता चल गया. भीड़ पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी क्योंकि उसमें लड़कियाँ और बच्चे भी थेक्या फ़ैसले अब भीड़ अदालतों में होंगे?
तो क्या हम भीड़तंत्र यानी Mobocracy और भीड़ अदालतों के दौर में पहुँच रहे हैं? क्या न्याय इसी तरह होगा? बिना सबूत, बिना गवाही, बिना जाँच, बिना पड़ताल, बिना तर्क, बिना बहस क्या ऐसे ही किसी की जान ली जा सकती है? जान लेना तो बड़ी बात है, क्या भीड़ किसी भी मामले में ऐसे किसी को भी अपराधी घोषित कर सकती है, किसी को कोई सज़ा सुनाई जा सकती है, चाहे कितनी ही छोटी? और अगर भीड़ को ही इन्साफ़ करना हो तो फिर क़ानून-व्यवस्था, पुलिस, अदालत इस सबकी क्या ज़रूरत है?
तो ऐसा क्यों हो रहा है? क्या महिलाओं के विरुद्ध होनेवाले अपराधों को लेकर समाज में इतना आवेश पैदा हो चुका है कि ऐसी घटना सामने आते ही लोग तिलमिला जाते हैं और किसी भी क़ीमत पर तुरन्त फ़ैसला चाहते हैं? क़तई नहीं! महिलाओं के विरुद्ध होनेवाले अपराधों को लेकर लोगों में अगर वाक़ई कोई सामूहिक चेतना जगी होती, तो ऐसे मामले अब तक बहुत कम हो गये होते! लेकिन ऐसा तो कहीं हुआ नहीं! एक सवाल. अगर नगालैंड की घटना में यही आरोप किसी नगा युवक पर लगता तो भी क्या लोगों ने उसे इसी तरह मार डाला होता? शायद नहीं. शायद तब इसे अपराध की एक सामान्य घटना के तौर पर देखा जाता और क़ानून अपनी रफ़्तार से अपना काम करता! तो फिर आगरा में ऐसा क्यों हुआ? लड़का उसी मुहल्ले का था. फिर क्यों उसकी हत्या हो गयी? इसलिए कि लड़का जूता बनाने के कारखाने में मज़दूर था. नशे में धुत हो वह अपने घर के सामने पेशाब करने लगा. और जूता कारोबारी एक ‘दबंग’ परिवार की लड़की को लगा कि वह उसकी तरफ़ अश्लील हरकत कर रहा है!
नगालैंड और आगरा: ख़तरे की दो घंटियाँ
सोच कर रूह काँप जाती है? खाइयाँ कितनी गहरी हैं और कितनी गहरी होती जा रही हैं. और यह खाइयाँ अब अपने आपको किन-किन रूपों में पेश करने लगी हैं! नगालैंड और आगरा की घटनाओं में यही समानता है. वहाँ एक सामाजिक विभाजन था और आगरा में दूसरा, जो अपराध की एक बड़ी या छोटी घटना को देखने और उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के हमारे पूरे उपक्रम को बदल देता है! वहाँ नगा हिंसक भीड़ को पूरा यक़ीन था कि स्थानीय पुलिस की मौन सहमति उन्हें बनी रहेगी, कोई उन्हें रोकेगा नहीं, इसलिए वह कुछ भी कर सकते हैं और यहाँ आगरा में ‘दबंगों’ को यक़ीन था कि अगर कोई मामला बना भी तो वह उसे आज नहीं तो कल रफ़ा-दफ़ा करा ही देंगे!
नगालैंड और आगरा दोनों ख़तरे की दो घंटियाँ हैं. आगरा जैसी घंटी तो देश में अकसर ही बजती रहती है, और लोग उसे वोट के लिए बजाते भी रहते हैं. लेकिन नगालैंड ने इस बात को उघाड़ कर दिया कि भारतीय समाज में भीतर ही भीतर कितने ज्वालामुखी खदबदा रहे हैं! बांग्लादेशियों की समस्या नयी नहीं है. बरसों से है. लेकिन किसी सरकार ने उसको हल करने की कोई कोशिश नहीं की. दूसरी बात यह कि उत्तर-पूर्व समेत देश के तमाम दूसरे क़बीलाई-आदिवासी, पहाड़ी इलाक़ों में उद्योग-धन्धों, अर्थ-व्यवस्था, रहन-सहन, संस्कृति और सामाजिक संरचना में ‘बाहर’ से आ कर बसे लोगों की घुसपैठ और वर्चस्व ने बड़ी विषम स्थिति पैदा कर रखी है. इस ओर कभी ध्यान दिया नहीं गया. और जब उन जगहों के लोग देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ने-लिखने या काम-धन्धे के सिलसिले में आते हैं, तो उन्हें यहाँ कैसे चिढ़ाया और दुरदुराया जाता है, यह सब जानते हैं! यही नहीं, समाज के तमाम दूसरे समुदायों में भी धर्म, जाति और आर्थिक अवसरों को लेकर टकराव, कटुता, असुरक्षा, विषमता, चिन्ताएँ और घृणा लगातार बढ़ती जा रही है. दिक़्क़त यह है कि इसे कम करने की कोशिशें तो दूर, यहाँ तो पूरी की पूरी राजनीति ही ध्रुवीकरण की गोटियों के सहारे चलती है!
पुलिस की मौन पक्षधरता!
दूसरी सबसे बड़ी चिन्ता पुलिस को लेकर है. पहली बात यह कि पुलिस, का़नून और अदालतों को लेकर न लोगों में भरोसा रह गया है और न डर! भ्रष्टाचार है, मामले दर्ज नहीं होते, दर्ज हो गये तो जाँच सही नहीं होती, फिर अदालतों की एक बड़ी जटिल और थकाऊ प्रक्रिया है, फ़ैसले होते नहीं, होते हैं तो इतने बरसों बाद कि उनका कोई मतलब नहीं रह जाता. यह तो एक अलग पहलू है. आगरा जैसी घटनाएँ इसीलिए हो जाती हैं और निपटा भी दी जाती हैं. लेकिन नगालैंड ने उस पहलू को उभारा है, जो कहीं ख़तरनाक है. पुलिस-प्रशासन की मौन पक्षधरता! पुलिस अगर इसलिए अपना काम न करे कि भीड़ से उसका किसी भी कारण जुड़ाव है तो क़ानून-व्यवस्था कैसे चलेगी? और यह कोई पहली बार नहीं हुआ है! पिछले सैंकड़ों दंगों में हम ऐसा होते हुए देख चुके हैं. लेकिन आज तक कभी पुलिस को ऐसे मामलों में संवेदनशील बनाने और प्रशिक्षित करने की कोशिश नहीं की गयी. इस रास्ते हम कहाँ जाना चाहते हैं? कभी सोचा है कि इसके क्या ख़तरे हो सकते हैं?
देश के असली मुद्दे वह नहीं हैं, जिन पर बड़ा ढोल पीटा जाता है और गाल बजाये जाते हैं. देश के लिए पहला और सबसे ज़रूरी मुद्दा यह है कि एक स्वस्थ समाज और एक स्वस्थ तंत्र के निर्माण के लिए हम कुछ कर रहे हैं या नहीं? आज का उत्तर है कि हम कुछ नहीं कर रहे हैं. और अगर जो कुछ कर रहे हैं तो वह ऐसा कर रहे हैं, जो इन्हें भीतर से और पोला करता जा रहा है. समझ नहीं आता कि पोली ज़मीन पर विकास की अट्टालिकाएँ खड़ी करने का सपना कैसे देखा जा रहा है?