वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार चुनावों की गहमागहमी के बेची राजनीतिक दलों में जनतंत्र और जन से जुड़े सरोकारों का विश्लेषण कर रहे हैं.demo

सन २०१४ का लोक सभा चुनाव आ गया है। सभी पार्टियां भी चुनाव मैदान में आ गई हैं अपने अपने कथित घोषणापत्रों, (जिनमे क्या लिखा हुआ है शायद इन घोषणा पत्रों को लिखने वालों के अलावा उन पार्टियों के नेताओं को भी नहीं पता है जिन दलों के लिए ये लिखा गया है), और अपने अपने उम्मीदवारों के साथ। मगर गौरतलब बात यह है कि जनतंत्र में आम आदमी यानि आम मतदाताओं का भी कुछ महत्व है या नहीं ?

उनकी कोई भूमिका है भी या नहीं ? या फिर उनकी भी कोई भूमिका होनी चाहिए भी या नहीं ? या चुनावों को पार्टी आकाओं, पार्टी सुप्रीमों, पार्टी आला कमानों और ज्यादह से ज्यादह पार्टियों के उम्मीदवारों के हाथों ही गिरवी छोड़ दिया जाना चाहिए ? चुनावों के वक़्त ये सवाल मौजूं है। मगर १९५२ के प्रथम आम चुनाव से अभी तक इस मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार हुआ भी था या नहीं, मुझे नहीं मालूम. इस विषय पर कभी अपने से पुरानी पीढी के वरिष्ठों से बात नहीं हुई.

आम तौर पर देखा यह जा रहा है कि जिन उम्मीदवारों का अपनी अपनी पार्टियों में असर रसूख होता है या फिर जो अपने अपने पार्टी सुप्रीमों के करीब होते हैं,या जो उनकी या उनके परिजनों और चमचों की गणेश परिक्रमा में सफल रहते हैं अपने लिए टिकट लेकर आ जाते हैं और ज़मीनी कार्यकर्ता जिन्होंने ता-उम्र समाज के लिए काम किया है और जिनका लम्बे संघर्षों का इतिहास भी रहा है, शैक्षणिक योग्यता भी रही है, समाज में न सिर्फ निर्गुण ईमानदार उम्र भर सड़क नापते ही नजर आते हैं.

विकल्पहीनता

ऐसी स्थिति में जनता के पास विकल्प मात्र यह बचता है कि उन्ही में से किसी एक उम्मीदवार को चाहे वो जैसा भी हो, में से ही, किसी एक को ही वो चुने -जिनके गले में किसी न किसी पार्टी का टिकट लटका हो. ये तो कहिये कि अभी अभी चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा (नन ऑफ़ द अबव) बटन दबाने का प्रावधान इस चुनाव से कर दिया है, तो कुछ ही सही मगर थोड़ी राहत की सूरत दिखने लगी है. नोटा बटन का विकल्प भी शायद इसी सवाल के जवाब में या जन-दवाब के विकल्प के रूप में आया है.

मगर अभी यह नोटा बटन कितना कारगर हो पायेगा जन भावनाओं को व्यक्त करने में इसकी परीक्षा अभी होनी है. इसका पता इस चुनाव के बाद ही लग पायेगा कि आम आदमी, आम मतदाताओं के बीच यह कितना लोकप्रिय हुआ.

विचार की जरूरर

मगर तब तक क्या किया जाए ? जनता को इसपर सोचना ही होगा. पार्टियों का जो अभी का हाल चाल है उससे हम आप सभी वाकिफ हैं. जनता का भी हाल इस मामले में मुझे लगता है कि पहले से बहुत अच्छा है, ऐसा नहीं लगता है. क्योंकि यह पाया गया है कई
नहीं बल्कि ज़्यादातर मामलों में, कि जनता भी, आम मतदाता भी, अच्छे से अच्छे उम्मीदवारों के पक्ष में इसलिए मतदान नही करती कि उनके पास किसी पार्टी का टिकट नहीं होता है. मरहूम दिग्विजय सिंह सांसद और दिवंगत बासुदेव सिंह विधान पार्षद जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो प्रायः ऐसा ही रुख मतदाताओं का पाया गया है.

मगर बिहार में मेरे ही गृह जिले बेगुसराय में उस वक्त भी जब कांग्रेस पार्टी का पूरे देश में एकक्षत्र राज हुआ करता था और बिहार में बिहार केशरी के नाम से मशहूर डॉ श्रीकृष्ण सिंह जिन्हें श्री बाबू के नाम से जनता में मकबूलियत हासिल थी जनता ने कांग्रेस पार्टी से श्री बाबू के साथ मतभेदों के कारण इस्तीफा देकर आये रामचरित्र सिंह को लोगों ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे एक बागी उम्मीदवार के रूप में जिताया और तब की जवाहरलाल नेहरु और श्री बाबू की जनता के बीच मकबूल रही कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड रहे बारो के अहमद साहेब की जमानत जब्त करवा दी थी. आज ऐसा शायद ही कोई सोच भी सकता है. बाद में इन्ही कांग्रेस के बाग़ी रामचरित्र सिंह के यशस्वी बेटे कामरेड चंद्रशेखर सिंह को बिहार विधान सभा का प्रथम वामपंथी विधायक (संयुक्त भाकपा से) बनने का भी श्रेय प्राप्त हुआ था.

लक्षमण रेखा

अब जबकि राजनीतिक पार्टियां भी तमाम लक्ष्मण–रेखायें लाँघ चुकी हैं और उनके लिए लोक-लज्जा या लोक-मर्यादा शब्दकोश का एक गर्हित शब्द मात्र बन कर रह गया है क्यूंकि या तो सभी टिकट बिक्री के इस वनिक व्यापार को अपना चुके हैं या फिर तमाम पार्टियों के अंदर कुछ इस तरह की सिस्टमिक गड़बड़ियां आ चुकी हैं कि सही मायने में लोक सेवा में जुड़े लोगों को टिकट मिलने की स्थितियां ही इन दलों के अंदर नहीं रह गयी हैं तो फिर वैसी स्थिति में आम जनता, आम मतदाता क्या करे ? कहाँ जाए ? या फिर लोकतंत्र को पार्टी-तंत्र, दल-तंत्र की गिरफ्त में, उनके खूनी पंजे में फरफराता रहने को छोड़ दिया जाए ? यह
एक मौजूं सवाल आज के भारत के लोकतंत्र के समक्ष यक्ष-प्रश्न की तरह अपने उत्तर की प्रतीक्षा में मुंह बाए खड़ा है.

क्या आपने कभी इस मुद्दे, इस बिंदु पर सोचने की जहमत उठाने की कोशिश की है कि आखिर क्या कारण है कि आज सभी राजनीतिक दलों के अंदर सुप्रीमो की परम्परा क्यों चल पड़ी है ? क्यों आज राजद माननीय लालू जी प्रसाद जी यादव जी की टेंट में बंद है, कथित लोक जन शक्ति पार्टी के भाग्य विधाता माननीय रामविलास पासवान जी बने बैठे हैं, बहन मायावती जी बसपा की नियंता हैं, जद(यू) में कहने के लिए भले ही माननीय शरद यादव जी पार्टी अध्यक्ष हो मगर चलेगा वही जो नितीश कुमार जी चाहेंगे क्योंकि उनके पास मुख्यमंत्री की हैसियत है, इंदिरा कांग्रेस में होगा वही जो राजवंश चाहेगा, समाजवादी पार्टी में बिना मुलायम सिंह यादव के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, दक्षिण में चले जाइए तो वहां पिता-पुत्र, ससुर-दामाद पार्टियां बहुत सारी मिल जायेंगी, जयललिता जो चाहेंगी उनकी पार्टी में वही होगा, हरदन हल्ली दोद्दे गौरा देवेगौडा जो चाहेंगे जिधर चाहेंगे उनकी पार्टी उसी दिशा में जायेगी .

कुल मिला कर पूरे देश में भले ही भाजपा हो या वाम दल कुल मिला कर होगा वही जो आर एस एस चाहेगी, बेचारे अडवाणी, सुषमा सबों को मन मार कर वही मानना पड़ेगा. वाम दलों के अंदर भी जनवादी केन्द्रीयता के नाम पर, पार्टी मैंडेट के नाम पर वही सब कुछ चलेगा जो पार्टी के अन्दर उस वक्त काबिज सत्तारूढ़ ग्रुप चाहेगा. मानो जनता की कोई औकात ही नहीं हो इन राजनीतिक दलों के सामने. यही है आज के भारत के लोकतंत्र के दलीय प्रणाली का आन्तरिक सच जिसमे “जनता की मर्जी” और “जनता की अदालत” जैसे शब्द मात्र एक मायावी शब्द भर बन कर रह गए हैं.

लोक, और लोकतंत्र

कहाँ है लोक, और फिर कहाँ है लोक द्वारा संचालित तन्त्र ? कहाँ है बहुश्रुत “जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए” वाला लोकतंत्र जब जनता की दलों के टिकट लटकाए उम्मीदवारों को वोट करने के अलावा अपने मन मुताबिक़ उम्मीदवारों के चयन में कोई भूमिका ही नहीं है ? आज कुल मिला कर भारतीय लोकतंत्र का नंगा सच है यह.

फिर भारतीय लोकतंत्र को सही मायनों में पार्टियों के लोकतंत्र से बदल कर जनता के लोकतंत्र में बदलने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है. क्या कुछ किया जाना चाहिए ? इस सब पर आज सोचने का समय आ गया है और पार्टियों के सही मायने में लोकतंत्रीकरण के लिए यह अब बहुत आवश्यक सा भी हो गया है.

क्या आज का भारत उसके लिए तैयार है ? क्या आज के भारतीय लोकतंत्र का मतदाता अभी इसपर सोचने के लिए तैयार भी है ? यदि हाँ तो उसे वैसे उम्मीदवारों को जिन्होंने बिना जनता की मर्जी के सिर्फ पार्टी नियंताओं की गणेश-परिक्रमा करके विभिन्न पार्टियों के टिकट हासिल कर लिए हैं, को पराजित कर राजनीतिक दलों के अंदर सही मायनों में जनतंत्र बहाली के इस यज्ञ में अपनी आहुति देने के लिए आज का आम आदमी, आम मतदाता तैयार भी है. भारत का जनतंत्र आज इसकी मांग कर रहा है. यदि आम मतदाता, आम आदमी इसके लिए तैयार हो तभी और सिर्फ तभी सही मायनों में “जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए” वाला जनतंत्र स्थापित हो सकता है, राजनीतिक दलों के अंदर भी लोकतान्त्रिक माहौल की वापसी हो सकती है, मतदाताओं की सार्वभौमिकता और उनकी स्वायत्तता की रक्षा हो सकती है.

आम मतदाताओं को, आम आदमी को, इसके लिए आगे आना ही होगा और यहाँ तक कि उसे अपनी मर्जी का उम्मीदवार खड़ा कर उसको निर्दलीय भी जिताकर दलीय टिकटों वाले गलत उम्मीदवारों को पराजित कर उन्हें वापस पेविलियन में वापस भेजने की भूमिका भी निभानी ही पड़ेगी. यही एकमात्र उपाय है जिससे भारतीय लोकतंत्र को सही मायने में जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सकता है और राजनीतिक दलों को भी मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होने के लिए मजबूर किया जा सकता है. क्या आज का भारतीय लोकतंत्र, उसके मतदाता इस महत्ती जिम्मेवारी के लिए तैयार भी हैं ?

(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता और हिंदी-अंग्रेजी के बाइलिन्गुअल पत्रकार हैं. सम्प्रति भारतीय प्रेस परिषद् के सदस्य हैं)

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