उग्रवाद प्रभावित गया-औरंगाबाद के जंगलों में घुस कर विनायक विजेता ने एक नये संगठन का पता लगाया है जो माओवादियों के खूनी खेल का बदला गोलियों की तड़-तड़ाहत से लेने की तैयारी कर चुका है. आप भी जानिये इस संगठन को
गया और औरंगाबाद के उग्रवाद प्रभावित गांवों के ग्रामीण और किसानों ने अपने हथियार फिर से चमकाने शुरु कर दिए हैं। कई वर्षों से रखे ये हथियार किसी नीरीह पर वार के लिए नहीं बल्कि उन माओवादियों के लिए उठेंगे जिन्होंने कितनी माताओं की कोख सूनी कर दी, संतान से पिता का साया छीन लिया और कितनी महिलाओं की मांग का सिंदूर धो डाला।
सोमवार को गया-औरंगाबाद सीमा पर नक्सली हमले में शहीद हुए बिहार के तीन जवान सहित सीआरपीएफ के दस जवानों की शहादत से इस इलाके के ग्रामीण काफी व्यथित हैं। इस इलाके के कई सीमावर्ती गांवों में सोमवार की रात चुल्हा तक नहीं जला।
ग्रामीणों ने रुंधे गले से बताया कि गश्त के दौरान सीआरपी के जवान जब गांव से गुजरते थे तो कुछ देर गांवों में रुककर लोगों की खैरियत पूछा करते थे। काफी जोर देने पर वो शर्बत या पानी पिया करते थे। ग्रामीणों का मानना है कि पुलिस और सीआरपीएफ के जवान लगातार जनता की सुरक्षा के लिए अपनी शहादत दे रहे हैं। नक्सलियों ने तो उनपर छुपकर वार किया पर ग्रामीण उन नक्सलियों से आमने-सामने की लड़ाई को बेताब हैं।
एक ग्रामीण रामनरेश सिंह ने कहा कि अपनों के खोने का दर्द कैसा होता है जब नक्सली नेताओं के परिवार वाले मारे जाएंगे तब उन्हें पता चलेगा। गया-औरंगाबाद सीमा पर स्थित एक गांव के खेत में बैठे ‘किसान आर्मी’ के एक प्रमुख सदस्य ने कहा कि ‘नक्सली नेता भले ही छूपकर रह रहे हों और पीठ पीछे वार कर रहे हैं पर ऐसे माओवादी नेताओं के पुत्र-पुत्रियां और पत्नीयां कहां रहती हैं उन्हें सब मालूम है। अगर माओवादी हमारे सुरक्षाकर्मी को मारकर उनके परिवार को दर्द पहुंचा रहे हैं तो हम माओवादियों के परिजनों को मारकर उन्हें भी दर्द का एहसास कराएंगे।’
सेमी ऑटोमेटिक, पुलिस रायफल सहित कई अन्य अत्याधुनिक हथियारों से लैस ‘किसान आर्मी’ के एक प्रवक्ता ने कहा कि ‘उनके संगठन के पास न हथियारों की कमी है और न ही मनोबल की। बस इंतजार है तो समय का। माओवादियों से निपटने के लिए जरुरत पड़ने पर अगर हमें सोना बेचकर लोहा (हथियार) खरीदने की जरुरत पड़ी तो हम वो भी करने को तैयार हैं।’