बेबाक पत्रकार नवेंदु ने मदरसों में झोंडोत्तल की विडियोग्राफी के ‘जोगियाफरमान’ की बखिया उधेड़ दी है. वह फर्जी देशभक्तों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए बता रहे हैं कि 52 वर्षों तक तिरंगा नहीं फहराने वाले संघी साखाओं की रिकार्डिंग कराई जाये.
मदरसों की देशभक्ति नापते हो, जो बच्चों को तालीम की सांस देते हैं।…और तुम्हारी देशभक्ति का क्या, तुम तो सांस छीनते हो!
माफ़ करना जो आज कुछ बोल रहा हूँ। कल से बहुत व्यथित था। हतप्रभ भी! दोनों खबरें डराने वाली ही थी। 70 साला आज़ादी की पूर्व बेला पर माँ भारती के पालनहारे और भारत माता के उद्धारकों, ये कैसा मंज़र दिखाया तुमने देश को!…और ढोली तारो, ये कौन सा ढोल सुनाया तुमने कि प्रदेश/देश के मदरसे अचानक सवालिया कठघडे में खड़े हो गए!
खबरें बेशक उत्तरप्रदेश से हैं, पर ये देश ही तो है। आम नागरिक की देशभक्ति तो इसी में महो-महो हो जाती है, जब उसे ये लगता है कि ये सारा देश हमारा है। ये तुम हो साहेब सरकार, जो देश को इस तौर पर देखते गिनते हो कि कितने राज्य भाजपा के, कितने बचे कांग्रेस के और कितने बचे कम्युनिस्ट के। बच्चों से जुड़ी बात है तो बच्चों से ही तो बनता है आज और कल का हिंदुस्तान। तुम्हें वह देशराग याद हो के न याद हो, हमें तो याद है~ पुरानी फ़िल्म का गाना है…बच्चों तुम तक़दीर हो कल के हिंदुस्तान की/ बापू के बलिदान की/ नेहरू के अरमान की…। अब कहीं भड़क मत जाना गांधी का बलिदान और नेहरू का नाम सुनकर!
गोरखपुर के अस्पताल में ऑक्सीजन के बिना सांस तोड़ते और लाश बनते नवजात बच्चे। मौत की संख्या है कि रुक नही रही। ऐसी आज़ादी दोगे तुम देश के नौनिहालों को!…ऎसा देश ऐसी व्यवस्था बनाये रखोगे। शहर आपका। चुनाव क्षेत्र आपका। तूती और दबदबा आपका। फिर बच्चों की जान-ओ-अमान की हिफाज़त किसकी महाराज?
छि: और थू:
ऐसी घटना घटने पर माफ़ी मांगने और तत्काल इंतेज़ाम बात करने, सिस्टम के ज़िम्मेदार हत्यारों को लाइन हाज़िर करने के बजाय सरकार और उसके मंत्री थेथरई करते हैं। भक्त मंडली को छोड़ देते हैं सोशल साइट पर यह ज़िरह रखने के लिए कि मदरसों के तिरंगा और राष्ट्रगान रिकॉर्डिंग के ‘जोगिया फरमान’ को पंक्चर करने के लिए सेक्युलर और देशद्रोही तत्वों ने बच्चों को अस्पताल में मारने की ये साज़िश रची।
छि: और थू: ऐसी ज़िरह और सनकी सोच पर। कितना घिनौना, गैर जिम्मेदार और अमानुषिक सोच लेती है ये देशभक्तानी सरकार!
ब्रितानी सरकार की परायी सोच को भी पीछे छोड़ दिया इस सरकारी ज़मात ने। अरे ज़रा गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के उस जांबाज़ देशभक्त और महा मनुष्य डॉ कफ़ील अहमद से ही नज़रें मिला लिए होते तो समझ में आ जाती मनुष्यता और राष्ट्रप्रेम का पाठ!
माफ़ी के साथ मदरसों में राष्ट्रभक्ति ढूंढने चली इस सरकार और इनके जैसे प्रोग्राम व एजेंडे वाली सरकारों से कुछ कहना पूछना चाहता हूं। बड़े अदब से कोई हमें ये तो बता दे कि जो लोग, संगठन और विचारधारा वाले भारत की आज़ादी के o52 वर्षों तक अपनी शाखाओं और नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा फहराने और जन मन गण गाने से गुरेज़ करते रहे, उन्हें क्या ये हक़ है कि वे दूसरे किसी जात-ज़मात की देशभक्ति जांच करें? पहले अपनी रिकॉर्डिंग और तस्वीरें दिखा तो दो फिर मदरसों की रिकॉर्डिंग भी करा लेना!
दादागिरी से और शक़-सुभा से देशप्रेम जागता नहीं भागता है। क्योंकि ये पैदा ही होता है प्रेम’ से। हिंदू राग अलापने वालों हिंदी भी जानो। ये देशप्रेम नामक शब्द और भाव ‘तत्पुरुष समास’ है। देश और प्रेम दो शब्दों से ये बना है। इस तत्पुरुष समास में हमेशा अंतिम पद प्रधान होता है। और देशप्रेम का अंतिम पद है ‘प्रेम’। तो प्रेम करो, नफरत नहीं। सबसे प्रेम ही भारत की पहचान रही है।
मदरसे में पढ़ा था अब्दुल हमीद
फिर ये किसने कहा कि मदरसों में देशप्रेम की तालीम नहीं दी जाती? या ये कहना चाहते हो कि मदरसे देशभक्त नहीं बनाते? जाकर पूछो गोरखपुर के डॉ कफ़ील अहमद से। जाकर पूछो परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद के गांव गाज़ीपुर से कि उन्होंने मदरसों में तालीम ली थी या तुम्हारे किसी सरस्वती शिशु निकेतन से? जब बुधवार आधी रात के बाद अस्पताल में बिना ऑक्सीजन के बच्चे छटपटाने लगे थे तो इंसेफेलाइटिस विभाग के शिशु विशेषज्ञ डॉ कफ़ील ही थे जो रात दो बजे से सुबह तक शहर के अपने दोस्त डॉक्टरों के क्लिनिक से दो-चार ऑक्सीजन सिलेंडर अपनी ही गाड़ी से ढोते रहे। तब गोरखपुर से लखनऊ तक राष्ट्रभक्त और हिंदू अभिमानी सरकार का पूरा तंत्र कुनबा मदरसों के ऑपरेशन तिरंगा’ में मदहोश था। पाकिस्तान के पैटन टैंकों को मदरसे के पढ़े अब्दुल हमीद ने ही 1965 के युद्ध में चिथड़े उड़ा दिए थे।
मैंने मदरसे में सीखा जन गण मन
कुछ और भी सुनाना चाहता हूं…मेरे गांव में कोई विद्यालय नहीं था। बात छठे दशक की है। गांव के एक मौलवी साहब ग़फ़ूर मियां एक तालीमी ज़मात चलाते थे। ठीक “गंगा जमुना” सिनेमा की तरह। मेरे बाबूजी ने मुझे भी ले जाकर तब तक के लिए मौलवी साहब की सोहबत में डाल दिया। मुझे बचपन की वो बात याद है। चार जलसे तो उस तालीमी ज़मात में ज़रूर होते थे- 26 जनवरी और 15 अगस्त को झंडोत्तोलन, सरस्वती पूजा, चउकचंदा और 5 सितंबर को शिक्षक दिवस। जन गण मन गाना हमने वहीं सीखा। वंदेमातरम गाना मुझे आज तक नहीं आता। ज़िला स्कूलों में किसी संस्कृत शिक्षक पंडीजी ने भी नहीं सिखाया।
एक पत्रकार होने के नाते मुझे ये तो अच्छी तरह पता है कि देशभक्ति का हुड़का बजाने वाले शोशेबाज़ों और संसद, विधानसभा और सरकारों को चला रहे कई मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को न तो जन गण मन और न ही वंदेमातरम गाने सुनाने और उसका अर्थ समझने में आता है। न्यूज़चैनलों पर इनकी पोल-पट्टी खुल चुकी है। अभी कल-परसों ही कोई चैनल शिवसेना और बीजेपी मंत्री नेताओं की पोल खोल रहा था। बेहतर होता है पहले अपने काजल लगा लो फिर किसी और को जोग लगाना!
संघ साखाओं की कराओ वीडियोग्राफी
देशवासियों की देशभक्ति ही जांचनी थी तो सारे स्कूल-कालेजों-मदरसों- संघ शाखाओं में, सभी जगह फ़रमान भेजते। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता। जाने गुरु महाराज को किस बेवकूफ़ ने ऐसी राजनीतिक सलाह दी! वैसे सरकार ने ऐसा क्यों किया ये बात भी समझ में आती है। अल्पसंख्यक खास कर मुसलमान और मदरसे नये निज़ाम के हिंदुत्वा दर्शन के निशाने पर है क्योंकि इन्हें बहुसंख्यक वोटों की इस देश में गोलबंदी करनी है। लेकिन देशवासियों को इस बात का भी पूरा यक़ीन है कि मदरसों के साथ वीडियो रिकॉर्डिंग की जद में सभी आते तो वही सबसे ज़्यादा फंसते, जिन्हें तिरंगा फ़हराने और पकड़ने की 52 वर्ष तक आदत नहीं रही है! आरएसएस ने 52 वर्षों तक तिरंगा यह कहते हुए नहीं फहराया कि वह हिंदु विरोधी झंडा है.
सिर्फ भगवा की बात करने वालों ढूंढ सकते हो, तो तिरंगे में ढूंढो अपना रंग। केसरिया रंग ही तो तिरंगे में लहराता फहराता है सबसे ऊपर।…मोको कहाँ ढूंढो रे बंदे में तो तेरे पास रे!! ये भगवावाद को किनारे कर तिरंगे को चूम पाओ तो ये देश और सवा सौ करोड़ देशवासी जानें कि तुम सच्चे देशभक्त हो।
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[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/11/navendu.jpg” ]लेखक पत्रकारिता जगत में तीन दशक से सक्रिय हैं. प्रभात खबर में स्थानीय सम्पादक रहे, मौर्य न्यूज चैनल हेड की हैसियत से जिम्मेदारी निभायी. डीडी बिहार व झारखंड के सलाहकार रहे.गर्वनेंस नाउ के बिहार हेड के रूप में सेवायें दी. फिलवक्त स्वतंत्र लेखन में रमे हैं.[/author]