जनता को मुफ्त खाने का लालच देकर कांग्रेस फिर चुनाव फतह करने की तैयारी में है खाद्य सुरक्षा बिल पर जिस तरह वह हड़बड़ी में है उससे लगने लगा है कि लोकसभा चुनाव समय पूर्व होंगे.
दर असल दिसंबर में ही चुनाव कराने की सरकार की योजना बताई जा रही है। अगर ऐसा होता है तो मनमोहन सिंह दिसंबर से पहले ही पीएम पद से इस्तीफा दे देंगे। नवंबर में संसद का मानसून सत्र बुलाने की तैयारी है। इसी सत्र में अहम बिल पास कराने के बाद लोकसभा भंग करने की सिफारिश की जाएगी।
भाजपा, समाजवादी पार्टी तो पहले ही कह चुकी हैं कि सरकार समय से पहले चुनाव कराएगी। सपा भी सितंबर में केंद्र से समर्थन वापसी की तैयारी में है। खाद्य सुरक्षा बिल को संसद में पेश ना कर अध्यादेश के जरिए लाने की मनमोहन सरकार की नीति जल्द चुनाव की संभावना को बल दे रही है। पता चला है कि इस सिलसिले में चुनाव आयोग भी साफ कह चुका है कि वो छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों के चुनाव की अधिसूचनाएं 22 सितंबर से पहले जारी कर देगा लिहाजा सरकार को जो करना है वो इससे पहले ही कर ले।
इन सभी राज्यों में कांग्रेसी खुद को बेहतर नहीं मान रहे हैं लिहाजा ये भी जल्द चुनाव का एक ठोस आधार माना जा रहा है। यानी मनमोहन सरकार के पास समय कम है और मानसून सत्र में इस बिल को पास कराने का झंझट कांग्रेस मोल नहीं लेना चाहती थी। लिहाजा शरद पवार और मुलायम सिंह जैसे समर्थकों के विरोध के बावजूद इसे अध्यादेश से लागू करने का फैसला किया गया, ताकि चुनावी नैया पार लग जाए।
सुषमा तो ट्वीट कर चुकी हैं कि आखिर इतनी जल्दी का राज क्या है? क्या जल्दी चुनाव तो कराने नहीं जा रहे हैं? सुषमा ने संसदीय परंपराओं की दुहाई देते हुए कांग्रेस को कोसा है कि यह अध्यादेश का तरीका संसद की अवमानना करता है। उधर यूपीए जिस समाजवादी पार्टी की बैसाखी पर टिकी है, वह भी बार बार जल्द लोकसभा चुनाव की बात कह रही है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने कई बार सार्वजनिक रूप से कहा है कि 2013 में ही लोकसभा चुनावों का ऐलान हो जाएगा।
इस यकीन के साथ समाजवादी पार्टी अब इस जुगत में है, कि रणनीति के लिहाज से वह कौन सा मुद्दा औऱ वक्त हो, जब यूपीए से समर्थन वापसी का ऐलान किया जाए। कहा जा रहा है कि एसपी के समर्थन वापस लेने की स्थिति में सरकार को जेडीयू से बाहरी समर्थन मिलने का भरोसा है। इसीलिए कांग्रेस फूड सिक्योरिटी बिल पर आक्रामक रवैया अपना रही है। गेम प्लान ये है कि जिस तरह से 2009 के लोकसभा चुनावों के पहले मनरेगा स्कीम और ऋण माफी के जरिए गरीबों के वोटों की फसल एकमुश्त काटी गई थी, उसी तरह से इस बार खाना खिलाकर वोट वसूला जाए।
गेम प्लान ये है कि जिस तरह से 2009 के लोकसभा चुनावों
के पहले मनरेगा स्कीम और ऋण माफी के जरिए गरीबों के
वोटों की फसल एकमुश्त काटी गई थी, उसी तरह से इस बार
खाना खिलाकर वोट वसूला जाए।
चूंकि मुद्दा गरीबों से जुड़ा है इसलिए कोई भी विपक्षी दल सीधे तौर पर इसका विरोध भी नहीं कर पा रहा है। भाजपा अगर- मगर कर रही है, तो एसपी किसानों के हितों की ढफली बजा रही है। इन सबके बीच विपक्ष की यह जायज शिकायत भी है कि जब पहले से ही कई राज्यों में इस तरह के एक्ट लागू हैं, तो यूपीए किस बात का क्रेडिट ले रही है। जल्द चुनावों के कयास के पीछे एक अंदेशा विधानसभा में पटखनी मिलने पर नकारात्मक नतीजों का भी है.
जिन राज्यों में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं, उनमें राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस की हार कमोबेश तय मानी जा रही है। पिछले लोकसभा चुनावों में इन राज्यों में कांग्रेस का शानदार प्रदर्शन रहा था। इसके अलावा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस अपनी चुनावी संभावनाएं बहुत बेहतर नहीं मान रही है। ऐसे में कांग्रेस के राजनीतिक सलाहकार ये तर्क दे रहे हैं कि विधानसभा चुनावों में हार के चलते होने वाली हाराकीरी से बचने और लहर को अपने पक्ष में करने का यही बेहतर मौका है।
लिहाजा चुनाव दिसंबर में करा लिए जाएं। हालांकि कुछ राजनैतिक पंडित यह भी कयास लगा रहे हैं कि कांग्रेस अटल बिहारी वाजपेयी की 2004 की गलती नहीं दोहराएगी और अपना कार्यकाल पूरा करके ही चुनाव में जाएगी। गौरतलब है कि वाजपेयी ने कुछ राज्यों की चुनावी जीत से उत्साहित होकर और चर्चाचों की मानें तो टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू के दबाव में आकर तय अवधि से कुछ महीने पहले ही आम चुनावों का ऐलान कर दिया था।