धंधेबाज चैनलो ! एक सिरफिरे की आत्महत्या पर नेताओं को तो तुम बेशर्म और मोटी चमड़ी का कहते हो पर क्या तुम खुद अंधे हो जो तुम्हें बिहार के तूफान से 54 बेसहारों की मौत नहीं दिखी?
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
दैश के चैनली पत्रकारिता जितनी बेशर्मी, बाजारूपन और खबरों की सौदागरी को कुतर्कों के सहारे आगे बढ़ा रही है इसकी सारी हदें बीते दिन तब टूट गयीं जब उन चैनलों ने पूर्वी और उत्तरी बिहार के भीषण तूफान की तबाही और 54 मासूमों की मौत पर एक आत्महत्या की खबरों को तरजीह दे दी. तमाम चैनलों ने तानाशाह और निरंकुश राजा की तरह सभी दलों के नेताओं को गाली की हद तक गिरे हुए शब्दों और उपनामों से संबोधित किया. दिन ढ़लते ही चैनलों ने आम आदमी पार्टी के किसानों के कार्यक्रम में एक आत्महत्यारे के बहाने तमाम नेताओं और पार्टियों को बेशर्म और मोटी चमड़ी का गुनाहगार तक कहा. लेकिन इसी रात बिहार के 12 जिलों में अचानक आयी भयानक तूफानी तबाही से चार दर्जन के करीब हुई मौतों को प्राइम टाइम के लायक तक न समझा.
नेताओं को गाली, पर अपने चेहरे तो देखो
पूर्णिया से लेकर सीतामढ़ी तक फैले इस भयावह मंजर का आलम ऐसा था जहां लोग दाना-पानी-दवा-इलाज के लिए तड़पते रहे. संचार और बिजली के सारे विकल्प ठप थे. मौत के शिकार लोगों के कफ्न-दफ्न के लाले पड़े थे. पर इन चौनलों ने दिल्ली के जंतर-मंतर की एक मौत, वो भी आत्महत्या, जो जुनून और अवसाद के कारण की गयी, वह खबर या उस खबर के बहाने नेताओं, सरकारों और पार्टियों की छीछालेदर करती खबरों से पाट दिया. एक-एक चैनल ने गजेंद्र नामी किसान की आत्महत्या को इंसानियत की हत्या तक कहा. केजरीवाल से ले कर मोदी और कांग्रेस तक को गालियां देने वाले शब्दों के निकटवर्ती शब्दों से मुखातिब किया, लेकिन उन्हें तूफान की तबाही के बाद बिहार के पीड़ितों की मदद पहुंचाने के प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए, लोगों को पल-पल की सूचनाओं से अवगत कराकर पीड़ित मानवता की सेवा करने की खबरों को खबर तक न समझा.
पत्रकार दूध के धुले और गैर पत्रकार पापी?
चैनलों तुम्हारी बेशर्मी की हदें तो यह भी है कि जिन नेताओं को तुम इसलिए कटघरे में खड़ा करते रहे कि उन्होंने पेड़ से लटके हुए गजेंद्र को बचाने की कोशिश नहीं की, पर बताओ कि क्या वहां खड़े हो कर मौत के मंजर को फिल्माना ही तुम्हारा धर्म था ?पत्रकार क्या इंसान नहीं होते और क्या इंसानियत के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी कुछ भी नहीं? क्या एक पत्रकार {माफ कीजिए मैं भी पत्रकार हूं} बहनों और बेटियों की लूटती असमत को इसी तरह फिल्माता रहेगा, यह कहते हुए क पत्रकारिता उसकी जिम्मेदारी है? नेताओं को गालियों से सुशोभित करने वाले बेशर्म और निर्लज चैनलों तुम अपने गिरेबान में क्या इसलिए नहीं झांकते कि चिल्लाने और दुनिया को बताने के साधन तुम्हारे पास हैं? कभी अपनी बेर्शमी, निर्लज्जता, मौत की खबरों से पैसे बनाने के हवस पर गौर क्यों नहीं करते? क्या यह देश सिर्फ नेताओं के बूते चलता है और क्या सारे कामों की जिम्मेदारी सिर्फ गैरपत्रकारों की है?
बाजारू
सच्चाई यह है कि तुम पैसे की भूख, बाजारूपन और टीआरपी के लिए घृणा फैलाना विशेषाधिकार समझते हो. तभी तो दिल्ली में गजेंद्र नामक किसान की आत्महत्या, जिसकी तुम लोगों ने पल-पल की शूटिंग की, उसे खबर समझा और लाखों उन लोगों की तबाही का मंजर तुम्हारे लिए कोई खबर नहीं जिसके जद में आकर पूरा पूर्वी बिहार सकते में है. इस तबाही के नतीजे में इंसानों, जानवरों, घरों, मवेशियों के ढ़ेर लगे रहे पर तुमने एक आत्महत्या की लाइव शूटिंग को जबरन देश के करोड़ों लोगों को देखने-सुनने के लिए मजबूर कर दिया.
भारत के बेशर्म चैनलो यह भी याद रखो कि तुम्हारी इन्हीं और इन जैसी करतूतों के कारण अब तुम्हारी कोई विश्वसनीयता भी नहीं बची है. जम्हूरियत की पहरेदारी का स्वांग रचने वाले चैनलों याद रखो, जनता के दिलों में तुम्हारे प्रति भी उतनी ही बगावत और नफरत पनप रही है जितनी, झूठ और बयानबाजी करके आम लोगों को गुमराह करते नेताओं की करतूतों से फैल रही है.
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