सुप्रीम कोर्ट ने नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के संबंध में एक ऐसी व्यवस्था दी है जो भारतीय तंत्र को साफ-सुथरा बनाने में दूरगामी असर डाल सकता है दूसरी तरफ नौकरशाहों ने इस पर संयमित प्रतिक्रिया दी है.
अदालत ने साफ कहा है कि भ्रष्टाचार के मामले में संयुक्त सचिव या उससे ऊपर के अधिकारी के खिलाफ जांच से पहले सक्षम प्राधिकारी से मंजूरी लेने का कानूनी प्रावधान अवैध और असंवैधानिक है.
ध्यान रहे कि भारत की नौकरशाही दुनिया की भ्रष्ट नौकरशाही की सूची में काफी ऊपर मानी जाती है. इसकी कई वजहों में से एक महत्वपूर्ण वजह यह भी मानी जाती है कि भारत में वरिष्ठ पदों पर आसीन ब्यूरोक्रेट्स के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सक्षम प्राधिकार से मंजूरी लेना अनिवार्य माना जाता रहा है. न्यायालय ने कहा कि मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्ट व्यक्ति को संरक्षण देने की प्रवृत्ति है.
प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेन्ट कानून की धारा 6-ए के प्रावधान पर विचार के बाद यह व्यवस्था दी. इस धारा के तहत भ्रष्टाचार के मामले में पूर्व अनुमति के बगैर नौकरशाहों के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती है.
संविधान पीठ ने कहा कि हम इस कानून की धारा 6-ए को अवैध और संविधान के अनुच्छेद 14 का हनन करने वाली घोषित करते हैं। इस धारा के तहत संयुक्त सचिव या इससे ऊंचे पद पर आसीन अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत आरोप की जांच से पहले सरकार की मंजूरी लेना आवश्यक है.
न्यायालय ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत अपराध की जांच के मकसद से अधिकारियों का कोई वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है.
नौकरशाहों की प्रतिक्रिया
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर बिहार के अनेक मौजूदा व रिटार्यड आईएएस अधिकारियों ने मिलीजुली प्रतिक्रिया में अदालत के फैसले का स्वागत तो किया है पर साथ ही यह भी कहा है कि इस फैसले का मिसयूज होने की संभावना बढ़ जायेगी. 1963 बैच के आईएएस रहे एसएन सिन्हा ने कहा है कि इस फैसले का मैं स्वागत करता हूं लेकिन यहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस प्रावधान का मिसयूज न हो सके. उन्होंने कहा कि वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों की भारी जिम्मेदारी होती है ऐसे में उनके खिलाफ कोई दुर्भावना से ग्रसित हो कर जब चाहे कोई शिकायत दर्ज कर सकता है.
वहीं योजना और विकास विभाग के प्रधान सचिव और वरिष्ठ आईएएस विजय प्रकाश का कहना है कि इस फैसले से भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई में मदद तो जरूर मिलेगी लेकिन कोई ऐसी व्यवस्था बनाये जाने की भी जरूरत है कि किसी अधिकारी को जानबूझ कर फंसाने वाले के खिलाफ भी तुरंत और कार्रवाई सुनिश्चित की जा सके. विजय प्रकाश का यह भी मानना है कि भ्रष्टाचार के मामले अदालतों में लम्बे खीचने के कारण अधिकारियों का करियर दाव पर लग जाता है इसलिए ऐसे मामलों के निपटारे जल्द से जल्द हों, इस बात को भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
इस संबंध में एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि देश के अनेक राज्यों में अनेक भ्रष्ट नौकरशाहों के खिलाफ ऐसे मामले आये हैं जिसमें सरकार की अनुमति की उम्मीद में कई वरिष्ठ नौकरशाहों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले आगे बढ़ाने में कोई प्रगति नहीं हो सकी.
न्यायालय ने कहा कि धारा 6-ए के तहत पहले अनुमति लेने का नतीजा अप्रत्यक्ष रूप से जांच में बाधा डालना है और यदि सीबीआई को प्रारंभिक जांच ही नहीं करने दी गई तो फिर तफतीश आगे कैसे बढ़ सकेगी।
संविधान पीठ ने कहा, ‘हमारा मानना है कि भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत अपराध की जांच के लिए चुनिन्दा अधिकारियों के वर्ग के बीच किसी प्रकार का विभेद नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत अपराध के मामले में अधिकारी के पद का क्या संबंध हो सकता है।
न्यायालय ने कहा कि समान व्यवहार से किसी को कोई छूट नहीं दी जा सकती है और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे अधिकारी को जांच की समान प्रक्रिया का सामना करना होगा।
अतिरिक्त सालिसीटर जनरल केवी विश्वनाथ ने कहा था कि सरकार किसी भी भ्रष्ट नौकरशाह को संरक्षण नहीं देना चाहती है और यह प्रावधान सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए है कि वरिष्ठ नौकरशाहों से बगैर किसी समुचित संरक्षा के पूछताछ नहीं की जा सके क्योंकि वे नीतिनिर्धारण की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
वरिष्ठ नौकरशाहों को जांच के प्रति संरक्षण का मसला करीब 17 साल पहले शीर्ष अदालत की समीक्षा के दायरे में आया था जब केन्द्र की इस दलील को ठुकरा दिया गया था कि नीति निर्धारक होने के कारण उन्हें थोथी शिकायतों से संरक्षण देने की आवश्यकता है।
इस संबंध में पहली याचिका सुब्रमणियन स्वामी ने 1997 में दायर की थी और बाद में 2004 में गैर सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने याचिका दायर की थी।