बिहार चुनाव में मुसलमानों ने क्या पाया? दैनिक भास्कर में छपे इस आलेख पर सोशल मीडिया में बहस छिडी है. यहां इस आलेख का गैर संपादित अंश पेश किया जा रहा है.
नोट- इस आलेख के माध्यम से समाज की वास्तविक तस्वीर पेश करने की कोशिश की गयी है. इसका मतलब अगड़ा-पिछड़ा विवाद नहीं है.
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
दुबई के एक फर्म में कार्यरत बिहार के एक युवक ने आठ नवम्बर को जब चुनाव नतीजे आये तो मुझे मैसेज किया और कहा कि उन्हें गठबंधन की जीत से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की हार पर खुशी है.पीआरओ के पद पर कार्यरत युवा की इस प्रतिक्रिया में मुसलमानों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व झलकता है. यह प्रतिक्रिया बताती है कि दक्षिणपंथी विचार की हार इसलिए जरूरी थी क्योंकि सामाजिक समरसता बिहार की जरूरत है.
साथ ही इस प्रतिक्रिया का दूसरा पक्ष यह है कि सत्ता की अपनी गतिशीलता होती है इसलिए इस जीत से मुसलमानों की शिक्षा और रोजगार जैसी समस्याओं का समाधान हो जाये, यह कत्तई जरूरी नहीं.
असेम्बली में नुमाइंदगी बढ़ी
लेकिन मुसलमानों की दृष्टि से जहां तक इस चुनाव परिणाम का राजनीतिक अर्थ है तो एक बात स्पष्ट है कि 1985 के बाद पहली बार मुसलमानों का विधानसभा में सर्वाधिक प्रतिनिधित्व दर्ज हुआ है. उस समय दस प्रतिशत मुसलमान विधान सभा पहुंचे थे. इस बार यानी16 वीं विधानसभा में भी दस प्रतिशत मुसलमान विधानसभा में पहुंचे हैं.इस बार 24 विधायक चुन कर आये हैं. इनमें राजद से 12, कांग्रेस से 6, जद यू से 5 और वामपंथी पार्टी से एक शामिल हैं. यह संख्या विधानसभा की क्षमता का करीब 10 प्रतिशत है. इसी तरह नीतीश कैबिनेट में चार मुसलमान शामिल किये गये हैं जो कुल मंत्रियों का 14 प्रतिशत होता है. बिहार की कुल आबादी का 16.9 प्रतिशत मुसलमान हैं. तीस वर्षों में पहली बार विधानसभा में ऐसी भागीदारी अपेक्षाकृत संतोषप्रद है.
पिछड़ों की नुमाइंदगी शून्य
पर सत्ता की भागीदारी के आईने में यह चुनाव परिणाम मात्र आधा सच है. बाकी जो आधा सच है उसका जिक्र न तो मुसलमानों का वोट बटोरने वाले गठबंधन के घटक दल कर रहे हैं और न ही मुसलमानों का प्रबुद्ध वर्ग. मुसलमानों की कुल संख्या का 85 प्रतिशत पिछड़े मुसलमानों का है. और इस आबादी का प्रतिनिधित्व कैबिनेट में शून्य तो है ही, विधानसभा में भी इनका प्रतिनिधित्व केवल 4 है. इस आधे सच की जड़ें टिकट बंटवारे से ही परिलक्षित हो गयी थीं. गठबंधन ने जब विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों की सूची जारी की थी तो बाजाब्ता उसमें हर प्रत्याशी के सामाजिक वर्ग का उल्लेख किया था. तब गठबंधन ने इस सूची में यह भी हाइलाट किया था कि उसने 14 प्रतिशत टिकट मुसलमानों को दिया है. इस में मुसलमानों के सामाजिक स्वरूप को गठबंधन ने छुपा लिया था.
इसी तरह जब कैबिनेट का गठन हुआ तो इस बात का खास ध्यान रखा गया कि सभी सामाजिक वर्ग को अनुपातिक प्रतिनिधित्व मिले. इन तमाम बिंदुओं को अगर हिंदुओं के प्रतिनिधित्व के आईने में देखें तो मामला एक दम उलटा है. वहां पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व न सिर्फ विधान सभा में बढ़ा है बल्कि कैबिनेट का सामाजिक स्वरूप तय करते समय भी इसका पूरा ख्याल रखा गया है. वजह स्पष्ट है. महागठबंधन की जीत को उसके नेता सामाजिक न्याय की जीत बताते नहीं थक रहे, लेकिन मुस्लिम समाज तक पहुंचे-पहुंचते उनके इस नारे ने मुस्लिम सम्प्रदाय का आवरण ओढ़ लिया है. ऐसे में बहुसंख्य मुसलमानों में गठबंधन की इस जीत के सामाजिक स्वरूप पर मंथन स्वाभाविक है. देखना है कि लालू-नीतीश इस मामले को आगे कैसे ले कर चलते हैं.