एनडीए में लोजपा और आरएलएसपी की हालत उन दो छोटे भाइयों जैसी हो गयी है जो हिस्सेदारी की मांग तो कर रहे हैं लेकिन बडे भाई की भूमिका वाली भाजपा चुप्पी तोड़ने का नाम नहीं ले रही.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट इन
सार्वजनिक तौर पर बोल कर लाभ लेना जितना स्ट्रैटजिक अप्रोच है, जुबान न खोल कर संभावित नुकसान को न्यूनतम करना भी एक हुनर है. एनडीए गठबंधन की सीटों के बंटवारे पर खामोशी, जुबान न खोलने के हुनर द्वारा नुकसान को कम से कम किये रखने की कोशिश ही लग रही है. लेकिन रामविला पासवान ने बीस साल पहले की एक घटना पर जुबान क्या खोली कि उन्हें या तो चुप रहने के हुनर की याद आ गयी या याद करा दी गयी. पासवान ने अटल बिहारी वाजपेयी के हवाले से जुबान खोली थी और कहा था कि वाजपेयी जी चाहते थे कि नीतीश कुमार की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाये. पासवान ने दो दशक बाद जुबान यूं ही नहीं खोली थी. यह उनकी रणनीति का हिस्सा था लेकिन जब एनडीए गठबंधन को यह आभास हो गया कि इससे नुकसान होगा तो उन्होंने खामोशी इख्त्यार कर ली.
खामोशी के पीछे तूफान
एनडीए के अंदर छायी यह खामोशी कई पशोपेश को जन्म दे रही है. गठबंधन दलों के बीच सीटों के बंटवारे का फार्मुला तय करने में कई तरह की पेचीदगियां हैं. सभी घटक दल औपचारिक बातचीत में तो यह जरूर कह रहे हैं कि सीट बंटवारा कोई समस्या नहीं. पर अंदर के हालात कुछ और ही हैं. पिछले दो महीने में आरएलएसपी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा भाजपा अध्यक्ष से इस मामले में दो बार मिल चुके हैं लेकिन अभी तक उन्हें कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है, कुशवाहा खुद भी इसे अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार करते हैं. इसी दरम्यान उनका दल दबाव की राजनीति के फार्मुले को भी अपनाता रहा है. कुछ दिनों पहले वैशाली में हुई आरएलएसपी की कार्यकारिणी की बैठक में बाजाब्ता एक प्रस्ताव पारित कर कुशवाहा को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया था. यह दीगर है कि पार्टी को पता है कि कुशवाहा को एनडीए मुख्यमंत्री का उम्मीदवार स्वीकार शायद ही करे.
धयान देने की बात है कि भाजपा की चुप्पी से आजिज आ कर आरएलएसपी और लोजपा ने ज्वाइंट प्रेस कांफ्रेंस कर अल्टीमेटम दिया है कि भाजपा सीटों का बंटवारा एक हफ्ता में तय करे. इतना ही नहीं इन दोनों पार्टियों का यह भी कहना है कि भाजपा ने, अबकी बार भाजपा सरकार का जो नारा दिया है वह भी एनडीए की भावना को ठेस पहुंचाने वाला है.
ऐसा नहीं है कि सीटों के बंटवारे का पेंच भाजपा के बाहर के दलों के बीच ही है. पिछले दिनों जद यू के पूर्व विधायक गौतम सिंह आरएलएसपी में शामिल हुए. गौतम सारण जिले से विधायक हुआ करते थे. लेकिन जिस मांझी विधानसभा सीट पर गतम के लिए आरएलएसपी दावेदारी कर रही है, उसे सारण के भाजपा सांसद जनार्दन सिंह सिग्रिवाल किसी भी हाल मं स्वीकार नहीं करने के मूड में हैं. इस तरह भाजपा और रालोसपा के बीच सीटों के लिए शह और मात चल रहा है.
पप्पू का खेल
उधर जहां तक पप्पू यादव की जनअधिकार पार्टी का सवाल है, तो औपचारिक तौर पर वह अभी तक एनडीए गठबंधन का हिस्सा नहीं बनी है. लेकिन एनडीए से निकटता दिखाने की उसने पूरी कोशिश की है. भाजपा के टॉप लीडरों से लगातार पप्पू मिलते रहे हैं. लेकिन पिछले दिनों उन्होंने भी ऐलान कर दिया कि एनडीए से समझौता सम्मानजनक होने पर ही वह उसके साथ जायेंगे. हालांकि कुछ टीकाकारों का मानना है कि पप्पू का एनडीए का साथ होना जितना एनडीए के लिए लाभदायक है उससे कहीं ज्यादा अलग रह कर वह एनडीए को लाभ पहुंचा सकते हैं क्यंकि पप्पू का आधार वोट पूर्वांचल के यादव और मुस्लिम वोटरों में माना जाता है और परम्परागत तौर पर इन दोनों समुदायों के अधिकतर वोटर एनडीए में न रहने पर ही पप्पू को मिलने की संभावना है. दूसरा, पप्पू जिन दो दलों- आरसीपी और एआईएमआईएम से समझते के मूड में हैं, वो भी सैद्धांतिक तौर पर एनडीए के विरोधी हैं. इस प्रकार एनडीए पप्पू को अलग रख कर लालू-नीतीश के रास्ते में कांट बिछाना ज्यादा पसंद करेगा.
लेकिन घूम-फिर कर बात एनडीए के सीट बंटवारे पर आती है तो यह साफ दिखने लगा है कि सीटों के बंटवारे में हो रहे विलम्ब से और कुछ नहीं, तो कम से कम उसके तकरकश से आक्रमण के वे तीर गायब होते जा रहे हैं जिसका इस्तेमाल वह सेक्युलर गठबंधन के खिलफ कर सकता था. क्योंकि यह एनडीए ही है जिसने लालू और नीतीश के बीच सीएम उम्मीदवारी के फैसले पर पहले प्रश्न खड़ा किया और फिर इस पर भी सवाल किया कि दोनों में सीट का बंटवारा आसान नहीं. लेकिन लालू-नीतीश उनके दोनों अंदेशों का समाधान पेश कर उसके आक्रमण की धार को कुंद कर चुके हैं. लेकिन अब सवाल यह है कि खामोश रह कर नुकसान को कम करने के फार्मुले पर एनडीए और कितने दिन चलेगा. उसे फैसलाकुन तौर पर जुबान खोलना ही होगा.
दैनिक भास्कर में प्रकाशित