-राष्ट्र-कवि को साहित्य सम्मेलन ने दी काव्य-श्रद्धांजलि
पटना, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’ महाकाव्यों के महान रचयिता तथा स्वतंत्रता-आंदोलन के प्रखर सेनानी राष्ट्र-कवि मैथिली शरण गुप्त मातृभूमि ‘भारत’ और राष्ट्र-भाषा ‘भारती’ के अनन्य सेवक और उन्नायक थे। वे भारत के ऐसे अकेले कवि थे, जिन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष की सांस्कृतिक उर भौगोलिक एकता की बात की। हिंदी की व्यापकता के लिए उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की की, “भगवान भारत वर्ष में गूँजे हमारी ‘भारती’”।
यह बातें आज यहाँ हिंदी साहित्य सम्मेलन में राष्ट्रकवि की जयंती पर आयोजित समारोह और कवि-गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए, त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल और सुप्रतिष्ठ साहित्यकार प्रो सिद्धेश्वर प्रसाद ने कही। प्रो प्रसाद ने कहा कि, गुप्त जी अपने विराट व्यक्तित्व और काव्य-पाठ से भी श्रोताओं को आकर्षित करते थे। उनका काव्य-पाठ मुग्ध करता था। वे भारत के उच्च सदन राज्य-सभा में भी सदस्यों के आकर्षण का केंद्र बने रहते थे। उन्हें पद्म-विभूषण की उपाधि यों हीं नहीं मिली थी।
अपने अध्यक्षीय उद्गार में, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने महाकवि को श्रद्धांजलि देते हुए, उन्हें खड़ी बोली की हिंदी कविता के इतिहास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवि बताया। डा सुलभ ने कहा कि, काव्य में ब्रज-भाषा के प्रबल प्रभाव से निकल कर एक नवीन स्वरूप वाली भाषा में काव्य की रोमांचकारी कल्पनाएँ भरने का स्तुत्य कार्य कर गुप्त जी ने आगे आने वाले कवियों का मार्ग सदा के लिए प्रशस्त कर दिया। उनकी रचनाओं में राष्ट्र-भाव, नैतिकता का उच्च आदर्श और भारत की सांस्कृतिक विशेषताएँ अपने संपूर्ण विकास के साथ प्रकट होती हैं। उन के साहित्य पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और महात्मा गाँधी के विचारों का व्यापक प्रभाव था। महात्मा गाँधी ने हीं उन्हें ‘राष्ट्र-कवि’ कह कर संबोधित किया था। उनकी रचनाओं में मानवीयता, मानवीय मूल्यों का आग्रह और नारी-समाज के प्रति श्रद्धा-भाव स्थल-स्थल पर मुखर हुआ है।
अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के साहित्यमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि, गुप्त जी की भाषा में एक पारीमार्जित सफ़ाई थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी उन्हें तुलसीदास का आधुनिक अवतार मानते थे।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्र नाथ गुप्त, प्रो वासकी नाथ झा, डा मेहता नगेंद्र सिंह तथा डा रमेश चंद्र पाण्डेय ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर महाकवि को समर्पित एक शानदार कवि-गोष्ठी का भी आयोजन हुआ, जिसमें कवियों ने राष्ट्र-भाव और मूल्यों झंकझोरने वाली एक से बढ़ाकर एक कविताओं का पाठ किया। उनमें सामाजिक-विद्रपताओं पर करारा व्यंग्य, देश की पीड़ा, जनाकांक्षा और उम्मीदों की ख़्वाहिश के रंग सम्मिलित थे। कवि -गोष्ठी का आरंभ कवि इंद्रमोहन मिश्र ‘महफ़िल’ की मातृ-वंदना से हुआ। वरिष्ठ कवि मृ”त्युंजय मिश्र ‘करुणेश’ ने कहा कि, “ज़िंदगी जूझ रही मौत से लड़ाई है/ अपनी भी ज़िद है कि जीने की क़सम खाई है/ होम करते हीं जले हाथ, क्या ‘करुणेश’ कहूँ/ मैंने जो जुर्म किया उसकी सज़ा पाई है”।
कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश’ ने आज की राजनैतिक दुर्दशा को रेखांकित करते हुए कहा-” सभी दलों में, रौशन-दान से घुसे चोर हैं/ कुछ में नाच रही सियारिनें कुछ में मोर हैं/ दल में दल-दल है। दलदल में है दल/ मालपुआ खाता हुआ दलाल है/ख़ानदान का ख़ानदान, गोटी की गोटी लाल है/ है मुल्क से मुहब्बत जिसको, मुल्क के ठेकेदारों से होता वही हलाल है”। डा शंकर प्रसाद का कहना था कि, “ रक्त-रंजित सारा वयोपार/ धारा रक्त-रंजित/ उफनता समंदर रक्त-रंजित/ उत्तालतरंगाघात रक्त रंजित/ वियाबाँ रक्त-रंजित/ रक्त की खेती करता विश्व/ रोपता है घृणा के बीज”
कवि राज कुमार प्रेमी, योगेन्द्र प्रसाद मिश्र, श्री घनश्याम, मूलचन्द्र, आनंद मोहन मिस्र, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, शंकर शरण मधुकर, शालिनी पाण्डेय, सच्चिदानंद सिन्हा, आर प्रवेश, प्रभात धवन, रवि घोष, रवींद्र नाथ चौधरी,आदि ने भी अपनी रचनाओं से श्रोताओं को प्रभावित किया।
इस अवसर पर, डा नागेश्वर प्रसाद यादव,आनंद मोहन झा,विश्वमोहन चौधरी संत, बाँके बिहारी साव, आनंद किशोर मिश्र, सुशील जायसवाल, अमन प्रताप सिंह समेत बड़ी संख्या में साहित्यसेवीगण एवं प्रबुद्धजन उपस्थित थे। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।