मुकेश कुमार बता रहे हैं कि गंतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति के सलामी स्वीकार करने के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर पीएम मोदी ने राष्ट्रीयता का अपमान किया, लेकिन घृणित मानसिकता वालों ने हामिद अंसारी को घसीटा.
आखिर क्यों मुस्लिमों को ही बार-बार अपनी राष्ट्रीयता साबित करनी होती है ? आखिर क्यों मुस्लमानों को शक की नजरों से देखा जाता है ? वर्त्तमान परिदृश्य में अंधराष्ट्रवादी प्रतीकों का जो दौर उभर के सामने आ रहा है उसमें कोई और नहीं बल्कि भारत के उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी की देशभक्ति पर सवाल खड़ा करने का प्रयास किया गया. जिस तरह से गणतंत्र दिवस के परेड के दौरान ली गई तस्वीरों को दिखाकर यह गलत सन्देश फ़ैलाने का प्रयास लोगों के द्वारा किया गया यह न केवल संवैधानिक पदधारक का अपमान है बल्कि एक सोशल मीडिया का शोषण(एब्यूज) भी है.
मोदी ने किया राष्ट्रीयता का अपमान
आखिर इस मुल्क में हमेशा क्यों मुसलमानों की निष्ठा पर शक किया जाता है ? राष्ट्रीयता के अपमान का मामला तो प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री के खिलाफ बनता था जिनको अपने राष्ट्रीय झंडा के प्रोटोकाल के बारे में नहीं पता है. इस आयोजन में राष्ट्रपति को सलामी कुबूल करनी होती है, न कि पीएम या रक्षामंत्री को. सच तो यह है कि मोदी ने अदिकारक्षेत्र का अतिक्रमण किया जो राष्ट्रपति का अपमान जैसा है. आखिर इस देश में शाहरुख़ खान से ही क्यों पूछा जाता है कि इस साल आपने दीवाली कैसे मनाई? आखिर अमिताभ बच्चन से यह क्यों नहीं पूछा जाता है कि आपने ईद कैसे मनाई? मुस्लिमों के साथ यह दोहरा व्यव्हार क्या कोई सोची समझी साजिश का हिस्सा है?
मुस्लिम मुखालिफ मानसिकता
आखिर कब तक मुस्लिमों को अपनी देशभक्ति साबित करनी होगी और क्यों? मीडिया में मुस्लिमों के कुछ प्रसंग—– “मेरी अच्छी किताब को साहित्य अकादमी मिला ही नहीं” शीर्षक से मुनव्वर राणा का साक्षात्कार ‘तहलका’ (पाक्षिक पत्रिका) में प्रकाशित हुई है.जिसमें हिमांशु वाजपेयी ने इमरान प्रतापगढ़ी से संबंधित एक प्रश्न पूछा है.जबकि यह प्रश्न मूलतः मुनव्वर राणा से पूछा ही नहीं गया था.मुनव्वर राणा ने “हमने तो अब तक जमींदारों को मारा हैं किसानों को नहीं” के शायराना अंदाज में कहा कि वह मुझको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने को लेकर साक्षात्कार था जिसमें इमरान पर कोई सवाल पूछा ही नहीं गया था.अगर मुन्नावर राणा की मानें तो यह पत्रकारिता का एक शर्मनाक पहलू है जिसके तहत अपने विचारों को किसी और के मुंह में रखकर बोलने की कोशिश है और वो भी तहलका जैसे “स्वतंत्र-निष्पक्ष-निर्भीक” पत्रिका होने का दावा करने वाले संस्थान के माध्यम से..अगर यह व्यक्तिगत रंजिश है तो इसके लिए इस पत्रकारिता को घसीटने का काम नहीं करें. यही सही समय है जब आपको ऐसी सारी परिघटनाओं के खिलाफ प्रतिरोध करने की जरुरत है नहीं तो कल एक सन्नाटा सा पसरा होगा.
ऐसे-ऐसे कुतर्क
“पुलिस या फ़ौज की नौकरी करने के लिए आपको देश के प्रति अटूट देशभक्ति चाहिए.आपको मर मिटना पड़े तो मर मिटने के लिए तैयार हैं लेकिन हम इस्लाम के लिए मर मिटने के लिए तैयार हैं.ये खुलकर कोई नहीं कहेगा लेकिन ये बातें इनके भीतर गहरी मानसिकता में है.तो ये पुलिस में आते नहीं, फौज में जातें नहीं.उसके बाद कहते हैं कि हमारा प्रतिनिधत्व कम है,लेकिन वो खाली कुरान पढ़ना चाहते हैं. तो हम क्या करें” प्रकाश सिंह जब यह बोलतें हैं तो क्या यह सच एक एक ही पक्ष नहीं होता है जो उनका अपना सच है.क्या मुस्लिम समाज इसके बारे में क्या सोचता है इसका एक पक्ष नहीं होना चाहिए था? पत्रकारिता के इन परिघटनाओं में बातों को सन्दर्भ से काटकर बताने की जो प्रवृति आती जा रही है वो अपने खतरनाक आयामों तक जा सकती है.
मुकेश कुमार पंजाब विश्वविद्यालय में मीडिया रिसर्च स्कालर हैं। उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।
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