मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के शपथ ग्रहण के कुछ दिन बाद नौकरशाहाडॉटइन के संपादक इर्शादुल हक ने उनसे लंबी बातचीत की थी। यह बाचतीत राजनीति से हटकर उनके व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक प्रसंगों को लेकर थी। वह प्रसंग और उसकी उपादेयता आज भी यथावत है। हम अपने पाठकों के लिए उस इंटरव्यू को फिर से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें कुछ प्रसंगों को संपादित किया गया है, लेकिन भावों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है। उनके संस्मरण और राजनीतिक परिस्थितियों पर उनकी बेवाक टिप्पणी भी पठनीय हैं। ( आप हमें कमेंट बॉक्स या मेल पर अपनी प्रतिकिय्रा से अवगत करा सकते हैं। हमारा इमेल है- [email protected] )cm news

 

मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी  से संपादक इर्शादुल हक की खास बातचीत

 

मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने अपने बचपन को याद करते हुए कहा कि मेरी शादी मात्र 11 साल की उम्र में कर दी गयी। मेरे ही साथ मेरे छोटे भाई ( जिनकी मौत हो गयी) की शादी तो मात्र 3 साल की उम्र में कर दी गयी थी। एक गरीब और समाज के हाशिये की बिरादरी होने के कारण मुझे कई तरह की सामाजिक यातनायें झेलनी पड़ीं। जब मेरी शादी तय हुई तो हमारे समाज के चलन के अनुसार, लड़का पक्ष ही लड़की पक्ष को चावल उपहार में देता था। इस प्रकार तय हुआ कि मेरी शादी में 10 पसेरी (50 किलो) चावल लड़की वालों को देना है। इस तरह दोनों भाइयों की शादी में 20 पसेरी चावल देना था। पिताजी (रामजीत राम मांझी) के लिए 20 पसेरी चावल की व्यवस्था करना असंभव था। मजबूर हो कर वह गांव के भूस्वामी के यहां पहुंचे। भूस्वामी चावल कर्ज देने पर सहमत तो हो गया, पर इस शर्त पर कि मुझे चावल के बदले उसके यहां गुलामी लिखवानी पड़ेगी। शर्तों के अनुसार पिताजी को बाजाब्ता उस कागज पर अंगूठे का निशान लगाना था कि मैं उनके यहां नियमित मजदूर के तौर पर काम करूंगा। मेरे पिता एक बंधुआ मजदूर की पीड़ा झेल चुके थे। इसलिए उन्होंने इस बात की चिंता न की कि मेरी शादी हो या न हो, वह गुलामी के लिए बनने वाले दस्तावेज पर दस्तखत नहीं करेंगे। काफी दिन बीत गये। फिर कहीं और से मेरे पिताजी ने चावल कर्ज लिया, बदले में खुद मजदूरी करने को तैयार हुए। आज अगर मेरे नाम की गुलामी लिखवा ली गयी होती तो मैं क्या आज यहां ( मुख्यमंत्री) होता ?

 

उन्होंने कहा कि किसी और शोषण का क्या जिक्र करूं? कोई एक हो तो कहूं। पूरा बचपन ऐसी घटनाओं से भरा है। पर मैं खुद को एक मिसाल समझता हूं और मैं मानता हूं कि तमाम बाधाओं के बावजदू मैंने शिक्षा हासिल की। इसलिए हर समाज के लोग चाहे वह महादलित ही क्यों न हों, हर हाल में शिक्षा हासिल करें। मेरे समाज के लोग पीने-खाने पर बहुत खर्च करते हैं ( उनका इशारा नशा की तरफ है)। हर परिवार यह तय करे कि अपनी थोड़ी सी आमदनी में से भी भी कुछ बचा कर बच्चों को पढ़ायेगा। मीडिया के रवैये की चर्चा करते हुए श्री मांझी ने कहा कि शोषण के मामले में आज भी हमारा समाज बहुत नहीं बदला है। उन्हें एक दलित से आज भी चिढ़ है। पर हम उनके रवैये पर ध्यान नहीं देते। हम काम में भरोसा करते हैं। मीडिया का एक हिस्सा, मनुवादी समाज और विरोधी दल जो चाहें बोलें, हमने विधान सभा में बोल भी दिया है। अब हमें उनके बारे में कुछ नहीं बोलना। हम काम से ही उन्हें जवाब देंगे। मैंने कहा कि उन्हें जो बोलना है , बोलते रहेंगे। हम काम करेंगे। पर मैं आप को बताऊं कि सरकार और संगठन दो चीजें होने के बावजूद लक्ष्य एक ही रखते हैं। फिर भी सरकार अपना काम करती है और संगठन अपना। लेकिन हम संगठन के किसी भी पदाधिकारी के सुझाव को जरूर सुनेंगे। अगर उनका सुझाव अच्छा लगेगा तो हम उस काम को करेंगे। अगर लगा कि उनका सुझाव  ठीक नहीं तो हम बिल्कुल भी उस पर अमल नहीं करेंगे।

 

नीतीश कुमार की चर्चा करते हुए मांझी ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने बहुत कुछ किया है दलितों के लिए, बच्चियों के लिए। पहले स्कूल नहीं थे, टीचर नहीं थे। अब गांव-गांव में स्कूल भी हैं और टीचर भी। सड़कें हैं और काफी गांवों में बिजली भी है। हम इस काम को जारी रखेंगे और गति देंगे। यह बात जरूर है कि एक महादलित परिवार का आदमी हमें देख कर गर्व करेगा, उसे प्रेरणा मिलेगी। हम पूरी कोशिश में हैं कि सरकार सबके विकास के लिए काम करे। नीतीश कुमार के प्रभाव के संबंध में श्री मांझी ने कहा कि नीतीश जी मुझसे कितने प्रभावित हैं, यह मुझे नहीं पता। पर इतना कह सकता हूं कि वह मुझसे प्रभावित थे, तभी तो उन्होंने और शरद यादव जी ने मुझ पर भरोसा किया और आज मैं यहां हूं। नहीं तो मेरे जैसे बहुत लोग थे। जहां तक नीतीश जी से मेरे प्रभावित होने की बात है तो मैं बताऊं कि मैं 1980 से यानी 34 सालों से विधायक हूं। इन चौतीस सालों में मुझे सात मुख्यमंत्रियों के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन मैंने इस दौरान किसी भी मुख्यमंत्री में इतनी ऊर्जा, इतना बड़ा विजन और मेहनत करने की इतनी ललक किसी में नहीं देखी। आज नतीजा है कि बिहार की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है। मुख्यमंत्री बनने के संदर्भ में उन्हों ने कहा कि मैंने अभी कहा कि मैं 1980 से विधायक हूं। इस पूरे पीरियड में सिर्फ एक टर्म मैं मंत्री नहीं रहा। वरना हर सरकार में, भले ही दो साल, तीन साल के लिए ही सही, मंत्री जरूर रहा। एक मंत्री के तौर पर किस की इच्छा नहीं होती कि वह मुख्यमंत्री बने। पर इच्छा होना या कल्पना करना एक बात है, पर सपना पूरा होना दूसरी बात। आज सपना पूरा हुआ।

 

 

अपनी दिनचर्या की चर्चा करते हुए उन्होंाने कहा कि एक साधारण इंसान हूं। सुबह चार बजे जगता हूं। सुबह में सत्तू पीना। फिर जो मिला वह खा लेना। दिन भर काम में लगे रहना। दो पहर में भोजन मिले तो करना, न मिले तो कोई बात नहीं। हां, ननवेज भी खाता हूं। मुख्यमंत्री ने साफ कहा है कि मैं चूहे खाने वालों में से हूं, लेकिन दुर्भाग्य है कि कुछ लोग इसे सामाजिक मान्यता देने से कतराते हैं। समाज का एक हिस्सा तो शराब को अपना स्टेटस सिम्बल मानता है, पर जब चूहे की बात आती है तो कुछ लोग नाक-भौं चढ़ाने लगते हैं। आज कई वर्गों में शराब चाय की तरह परोसी जाती है, जबकि इसमें कई तरह की सामाजिक बुराइयां छिपी हैं। वहीं दूसरी तरफ चूहे पारम्परिक आहार के रूप में एक वर्ग में इस्तेमाल किया जाता है, फिर भी लोग इसे बुरी नजरों से देखते हैं। सवाल यह है कि महादलित समुदाय के लोगों में खास कर मुसहर जाति के लोग सामंतवादी व्यस्था के शोषण के शिकार रहे हैं। जीवीकोपार्जन के लिए खेती या अन्य पारम्परिक संसाधन से इस तबके को वंचित रखा गया। इसके कारण इस समुदाय के लोग खेतों में कटनी के बाद छूट गये ऐसे अनाज पर निर्भर करते रहे हैं, जिन्हें चूहे अपने बिलों में रखते हैं। अनाज की तलाश के क्रम में उन्हें अनाज के साथ-साथ चूहे को भी आहार के रूप में उपयोग करना पड़ता रहा है। लेकिन कभी भी चूहा खाने को इस व्यस्था ने अच्छी नजरों से नहीं देखा। लेकिन समाज को मानसिकता बदली चाहिए  और यथार्य का स्‍वीकार करना चाहिए।

By Editor


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