विधान सभा चुनाव से पहले, विधान परिषद की 24 सीटों के लिए होने वाली जंग सभी पार्टियों को उनकी अवकात बता देगी. इस चुनाव से जुड़े विभिन्न पहलुओं  पर रौशनी डालता यह आलेख आपके लिए.bjp.jdu.rjd

कुमार अनिल
विधानपरिषद चुनाव के लिए प्रत्याशियों की घोषणा हो चुकी है। जदयू, राजद, भाजपा और लोजपा-ये चार दल 24 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं, जिनमें एक भी दलित प्रत्याशी नहीं है।

जाहिर है टिकट बंटवारे का यह पैटर्न विधानसभा चुनाव में पूरी तरह बदल जाएगा। कैसा होगा वह पैटर्न, किसे कितना हिस्सा मिलेगा? यह सवाल कार्यकर्ता से नेता तक को परेशान किए हुए है। क्या जदयू पुराने पैटर्न पर ही टिकटों का बंटवारा करेगा? यानी पार्टी अतिपिछड़ों, महादलितों और मुस्लिमों को ही सर्वाधिक टिकट देगी। वहीं कुछ विश्लेषक मान रहे हैं कि जदयू को अच्छा प्रदर्शन करना है, तो उसे भाजपा के वोट बैंक को तोड़ना होगा। उसे सतर्कता से इस प्रकार टिकटों का बंटवारा करना होगा कि उसका पुराना आधार बना रहे और वह भाजपा के सवर्ण आधार में सीमित तौर पर ही सही, पर अपनी पैठ भी बनाए।

 

इसके लिए उसे चाहिए कि वह सवर्णों को पहले से अधिक टिकट दे। राज्य सरकार का एक निर्णय इस विचार को पुष्ट करता दिखता है। सरकार ने गरीब सवर्णों को विशेष सुविधाएं देने का निर्णय लिया है। अब 1.5 लाख रुपए से कम आमदनी वाले सवर्णों के बच्चों के मैट्रिक फर्स्ट डिविजन पास करने पर 10 हजार रुपए दिए जाएंगे। सवर्ण आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए कमेटी भी बना दी है।
जातिवाद पर चोट या नया समीकरण
कुछराजनीतिक विश्लेषकों ने तो इसे जातीय राजनीति के विरुद्ध वर्गीय राजनीति को मजबूत करनेवाला निर्णय तक बता दिया है। ऐसे लोग इसे समाजवाद की दिशा में बढ़ा कदम बता रहे हैं। आज की राजनीति को देखते हुए यह विश्लेषण अतिशयोक्तिपूर्ण लगना स्वाभाविक है। आज का राजनीतिक दौर आदर्शवाद का दौर नहीं है। यह परिणामवादी दौर है, जिसमें हर निर्णय को चुनावी नफा-नुकसान से जोड़ कर देखा जाता है। हां, निर्णयों को सैद्धांतिक जामा पहनाना जरूरी होता है। पहले जब नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ों और महादलितों को पंचायती चुनाव में आरक्षण दिया, तो नेतृत्व ने उसे समावेशी विकास कहा। लेकिन देश भर के राजनीतिक विश्लेषकों ने यह भी माना कि यह नीतीश कुमार की खास सोशल इंजीनियरिंग थी, जो उस समय की विशेष राजनीतिक स्थिति में अपना ठोस आधार बनाने को लक्षित था।

 

उसका परिणाम भी सामने आया। पिछड़ों एवं दलितों की राजनीति दो हिस्सों में बंट गई। अतिपिछड़े और महादलित जदयू के खास आधार बने। लेकिन पिछले दस वर्षों में गंगा में ढेर सारा पानी बह चुका। राजनीति भी स्थिर नहीं है। अगर पिछले लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ों का एक हिस्सा भाजपा की तरफ झुका दिखा, तो बाद में जीतनराम मांझी के अलग होने से महादलितों की एकता में भी सेंध लगी। उधर, प्रधाननमंत्री नरेंद्र मोदी का आभा मंडल भी 2014 की गर्मियों जैसा नहीं रहा।

 

तेली अतिपिछड़ी जाति में

ऐसे में यह जरूरी भी दिखता है कि इस संक्रमणकालीन राजनीतिक स्थिति में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा के आधार को तोड़ने की कोशिश करें। गरीब सवर्णों को विशेष सुविधाएं एवं तेली जाति को अति पिछड़ों में शामिल करने को इसी नजरिये से देखा जा रहा है। इन दो निर्णयों का आगे विस्तार भी संभव है, जो भविष्य में राजद के साथ संबंधों में संतुलन का काम करेगा। इससे चौराहों पर जारी वह चर्चा थम सकती है कि नई परिस्थिति में जदयू का सामाजिक आधार कमजोर हुआ है। गरीब सवर्णों को सुविधाएं देने को फिलहाल कोई सैद्धांतिक नाम नहीं दिया गया है, पर आप इसे सुविधा के लिए समावेशी विकास-2 कह सकते हैं।
जातियों को बांटने का आरोप

जदयूके विरोधी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर पिछड़ों और दलितों को बांटने का आरोप लगाते रहे हैं। अब कुछ विश्लेषकों ने सवर्णों को भी बांटने का आरोप जोड़ दिया है। देखा जाए, तो इस आरोप में पूरी सत्यता नहीं है। पिछले 65 वर्षों से आरक्षण के कारण दलितों के एक समूह ने इसका ज्यादा लाभ लिया और दूसरा हिस्सा उतना लाभ नहीं ले पाया। पिछड़ों में भी एक अंतराल पैदा हुआ। इसी अंतराल को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलित या अतिपिछड़ों को विशेष मौका देकर पूरा करने की कोशिश की। लेकिन यह प्रक्रिया अंतहीन नहीं हो सकती और फिर इस गोलबंदी का दरकना स्वाभाविक था। अब जबकि राजद ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी मान लिया, तब यह देखना भी रोचक होगा कि दोनों टिकट बंटवारे में किस जाति पर कितना जोर देते हैं। यह दोनों के बीच अंतर्निहित प्रतियोगिता और भविष्य की राजनीति दोनों लिहाज से महत्वपूर्ण होगा।
भाजपाके सामने भी सवाल

इसबार आंबेडकर जयंती पर भाजपा ने जितनी सक्रियता दिखाई उससे स्पष्ट है कि वह आधार विस्तार करना चाहती है। इसकी वजह भी है। आज मायावती की बसपा चमक खो चुकी है और भाजपा को लगता है कि बिहार में भी दलित उसके साथ सकते हैं। तो क्या भाजपा टिकट बंटवारे में दलितों पर जोर देगी? क्या वह जदयू के वोट बैंक को तोड़ने के लिए अतिपिछड़ों को ज्यादा टिकट देगी? क्या वे सवर्णों-अतिपिछड़ों और महादलितों का समीकरण बनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं? ये सारे सवाल राजनीतिक गलियारों में उठ रहे हैं , जिनका सही जवाब देनेवाला फिलहाल कोई नहीं है। इंतजार कीजिए।

 

कुमार अनिल दैनिक भास्कर से जुड़े हैं. उनका यह लेख दैनिक भास्कर से साभार

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