वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश अपने एक लेख में कहते हैं कि आईएएस-आईपीएस भारती संघ के नौकर हैं लेकिन अगर वह राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष में बयानबाजी करने लगें तो यह देश के लिए घातक है. पढ़ें यह लेख-
राजनीतिक दल, देश को तोड़ने पर तुले हैं. मुजफ्फरनगर दंगा और उसके बाद की स्थितियां, प्रासंगिक उदाहरण है, यह समझने के लिए. दिल्ली पुलिस के अनुसार लश्कर-ए-तैयबा के दो युवकों ने मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों से संपर्क किया. उन युवकों ने स्वीकारा कि कई बार वहां जा कर वे दंगा पीड़ितों से मिले और संभावित आतंकवादियों की तलाश की. दिल्ली पुलिस के बयान से लगता है कि इसके पीछे लश्कर-ए-तैयबा है. दिल्ली पुलिस के बयान के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस का बयान आया कि हमें ऐसी कोई सूचना नहीं है. उत्तर प्रदेश पुलिस के एक डीआइजी ने टीवी पर कहा कि राहुल गांधी ने बहुत पहले यह आशंका जाहिर की थी कि आइएसआइ (पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी), मुजफ्फरनगर दंगे के युवकों से संपर्क की कोशिश में है. यूपी के डीआइजी के अनुसार राहुल गांधी के इस बयान को सच साबित करने के लिए दिल्ली पुलिस ने ऐसा काम किया है. डीआइजी के अनुसार यह राजनीतिक कदम है.
डीआईजी का बयान
डीआइजी के बयान की सच्चई जानने से पहले याद रखिए कि भारतीय पुलिस या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, भारत संघ के नौकर हैं. भारतीय संविधान के तहत उनको देश के लिए काम करना है. वे सार्वजनिक रूप से नेताओं की तरह राजनीतिक बयान देने के अधिकारी नहीं हैं. लेकिन आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश के डीआइजी ने राहुल गांधी पर राजनीतिक हमला किया. वह कह सकते थे कि दिल्ली पुलिस की यह सूचना अधूरी है या गलत है या जांच चल रही है. इस नाजुक और महत्वपूर्ण मुद्दे को एक बार आप अलग रख दें, तो हमारे अफसर सार्वजनिक जीवन में किस तरह पेश आने लगे हैं? व्यवहार करने लगे हैं? अगर भारतीय पुलिस सेवा या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर, भारतीय संविधान-कानून से बंधे रहने के बजाय, नेताओं या दलों से बंध कर बयान देने लगें, तो इस देश को बचाना या देश की एकता को संभाले रखना नामुमकिन है. दुर्गाशक्ति नागपाल प्रकरण में उत्तर प्रदेश ने केंद्र को यहां तक कह दिया कि सभी आइएएस वापस बुला लें. क्या यूपी स्वतंत्र देश है? दरअसल, केंद्र या भारत संघ की महिमा घट गयी है. इंदिरा गांधी के रहते कोई राज्य सरकार ऐसा बयान देती?.. भारत को खतरा क्षत्रप नेताओं से है. उनके आचरण से है. अफसर, नेताओं के भक्त तो हो ही गये हैं, पर इस हद तक शायद पहली बार हुआ है कि एक डीआइजी सार्वजनिक रूप से टीवी पर राजनीतिक बयान देता है. राहुल गांधी पर व्यंग्य करता है.
अब तथ्य पर लौटें. नहीं मालूम कि सच क्या है, पर इस प्रसंग को लेकर केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने कहा कि राहुल गांधी ने कितना सही कहा था. इसी तरह कांग्रेस के बहुचर्चित और हर विषय पर स्तब्धकारी बयान देकर, कांग्रेस की जड़ हिला देनेवाले माननीय दिग्विजय सिंह का बयान आया. उन्होंने अपने बयान से यह सिद्ध करने की कोशिश की कि राहुल गांधी किस हद तक देश का भविष्य देख सकते हैं. उन्होंने (राहुल ने) पहले ही यह बात कही थी. अब दो आतंकवादियों के बयान से पुष्टि हो गयी. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के राजनीतिज्ञों के बयान आये. उत्तर प्रदेश के बड़बोले और अपने असंयमित बयानों के लिए देशभर में बहुचर्चित मंत्री आजम खां ने फरमाया कि अब राहुल गांधी से इस मामले में पूछताछ हो. याद रखिए, राहुल गांधी ने इंदौर की बड़ी सभा में इस संवेदनशील तथ्य का खुलासा किया था. दरअसल, इस प्रसंग के पीछे के सच को छोड़ दिया जाये, क्योंकि जांच के बाद चीजें स्पष्ट होंगी, पर कुछ सवाल तो अपनी जगह हैं ही. क्या ऐसी संवेदनशील सूचना, राहुल गांधी को एक सार्वजनिक सभा में देनी चाहिए थी? इसके जवाब में क्या यूपी पुलिस को दिल्ली पुलिस पर ही सवाल उठाने चाहिए? क्या पुलिस भी राजनीतिक दल है? क्या देश की सुरक्षा से जुड़े सवालों-गोपनीय प्रसंगों पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए? दूसरे मुल्कों में ऐसे सवालों पर सब संयम रखते हैं. यह जांच एजेंसियों का जिम्मा है कि वे सही ढंग से अपना काम करें. सच तक पहुंचे. हां, यह सुनिश्चित होना चाहिए कि जांच एजेंसियां किसी निदरेष को न फंसायें या पकड़ें? पर ऐसे मौकों पर नेता क्यों कूदते हैं? क्योंकि ऐसे सवालों पर वे वोट बैंक की राजनीति करते हैं.
नेताओं का चरित्र
दूसरी तरफ उन नेताओं का असल चरित्र देखिए. आप महज बयानों से दंगा-पीड़ितों (मुजफ्फरनगर के) से सहानुभूति बटोरते हैं? ठंड से राहत शिविरों में लोगों के मरने की खबर आ रही थी, उधर मुलायम सिंह के गांव सैफई (जहां दो सौ करोड़ का स्विमिंग पूल बना है) में नाच-गान चल रहा था. यह महोत्सव लंबा चला. माधुरी दीक्षित, सलमान खान भी नाचे. ठुमके लगाये. एक तरफ कराह-आह की गूंज, दूसरी तरफ मौज. इस बीच देश-समाज कहां है? समाज बांट कर भी अपको गद्दी क्यों चाहिए? समाज की तरक्की के लिए नहीं, इसी मौज-मस्ती के लिए न?
मुजफ्फरनगर दंगों से प्रभावित शिविरों में लोग ठंड से अकडें, यह अमानवीय है. दंगा-पीड़ितों पर यह आरोप लगा कि राहत शिविरों में रहनेवाले कुछ लोगों ने दंगों के नाम पर मिलनेवाले पैसे, सुविधाएं और राहत ले ली है, लेकिन अब उन्हीं परिवारों के अन्य लोग अलग से अपने-अपने नाम ये सुविधाएं लेना चाहते हैं. इसलिए वे शिविरों में टिके हुए हैं. यह भी आरोप लगा कि राहुल गांधी वहां जाकर इसमें राजनीति कर रहे हैं. क्या ऐसे सवालों को हम राजनीति से परे नहीं रख सकते? संभव है, वहां पर दंगों से प्रभावित लोग राहत पाने के लिए या सरकारी पैसा-अनुदान पाने के लिए टिके हों, पर यह सवाल सभी राजनीतिक दलों को खुद से करना चाहिए कि यह स्थिति क्यों आयी? क्यों हमने समाज को इस तरह से परजीवी बना दिया है? अगर अत्यंत ईमानदार और पारदर्शी ढंग से सरकारी राहत का बंटवारा होता, तो ऐसी स्थिति नहीं होती? फिर भी अगर कुछेक लोग इस भयंकर ठंड में उन शिविरों में पड़े रहे, तो उनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए. क्या उनके शिविरों पर बुलडोजर चलाना सही था? यह एक सभ्य समाज का कदम है? हम बांग्लादेश या पाकिस्तान नहीं हैं. कम-से-कम यह भारतीय परंपरा नहीं है.
यह सिर्फ दो समुदायों के बीच का प्रसंग नहीं है, इसके पीछे सत्ता का मकसद है. सत्ता, जो मानती है कि देश से बड़ा दल है और दल से बड़ी नेताओं की निजी सत्ता है. इन नेताओं का निजी अहंकार, सत्ता से भी बड़ा है. भारतीय परंपरा कहती है कि अहंकार, नाश का मूल है. ये नेता अपने कामकाज के लिए, अपने वोट बैंक के लिए इस तरह अहंकारी हो चुके हैं कि सिर्फ हिंदू और मुसलमानों को ही नहीं लड़ा रहे, बल्कि पूरे समाज को अलग-अलग जाति, कुनबे, गोत्र, क्षेत्र में बांट चुके हैं. आज मुलायम सिंह और उनका कुनबा, उत्तर प्रदेश में राज कर रहा है. हकीकत यह है कि वहां कोई समाजवादी पार्टी नहीं है. जो सत्ता में है, वह मुलायम सिंह एंड परिवार की पार्टी है. वह अपने नेता के रूप में डॉक्टर लोहिया की चर्चा करते हैं. डॉ लोहिया, जिन्होंने हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम एकता का एक बेहतर सपना देखा. गांधी के रास्ते चल कर एक अद्भुत ढंग की परिकल्पना की. अक्तूबर, 1963 में लोहिया ने ‘हिंदू-मुसलमान’ विषय पर हैदराबाद में अद्भुत व्याख्यान दिया था. इसका मर्म-मकसद था कि दोनों कैसे एक हों? यह हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. गौर करिए, आज विभिन्न जातियों-धर्मो में एकता पैदा करनेवाले वैसे राजनेता या राजनीति कहीं है? रोज तो हर जाति-धर्म में लड़नेवाले विष बो रहे हैं. सिर्फ जहर की खेती हो रही है. गांधीवादी परंपरा में जहर मिटानेवाली नैतिक राजनीति, मानवीय राजनीति तो इस धरती से विदा ही हो गयी. तब लोहिया ने इस भाषण में कहा था कि हर एक बच्चे को सिखाया जाये, हर एक स्कूल में, घर-घर में, क्या हिंदू क्या मुसलमान, बच्ची-बच्चे को कि रजिया, शेरशाह, जायसी वगैरह हम सबके पुरखे हैं, हिंदू-मुसलमान दोनों के.. साथ-साथ मैं यह चाहता हूं कि हममें से हर आदमी, क्या हिंदू, क्या मुसलमान यह कहना सीख जाये कि गजनी, गोरी और बाबर लुटेरे थे. हमलावर थे. इस तरह लोहिया ने इतिहास को समझ कर कहा कि हम अतीत से सीख कर एकसूत्र में बंधें. उनका मानना था कि देश वह दौर देखना चाहता है, जब हिंदू, मुसलमानों का नेतृत्व करें और मुसलमान, हिंदुओं का. अगड़े, पिछड़ों की रहनुमाई करें और पिछड़े, अगड़ों की. पर आज बात कहां पहुंच गयी? आपस में हम धर्म, जाति और गोत्र में बंटे हैं. फिर अपना परिवार है, परिवार में भी अपने बेटा-बेटी हैं. यही हाल मुसलमानों का भी है. वहां भी विभाजन है, पर दूसरे तर्ज पर. यह काम वही लोग कर रहे है, जो डाक्टर लोहिया के रास्ते पर चलने का दिखावा करते हैं.
प्रभात खबर में प्रकाशित लेख के कुछ सम्कपादित अंश