संसद शब्द जब हमारे कानो तक पहुँचता है लोकतंत्र एवं एक लोकतान्त्रिक प्रकिया तथा सरकार कि छवि हमारे सामने उभर कर आती है. ठीक उसी तरह “बालसंसद” शब्द जैसे ही हमारे जेहन में आता है, हमारे सामने विद्यालयों की लोकतान्त्रिक तस्वीर आती है. “बालसंसद” के द्वारा हम बच्चों में लोकतान्त्रिक मूल्य एवं लोकतंत्र के स्वरुप को देखने लगते हैं.
विजय कुमार मिश्र
परन्तु एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सरकार द्वरा विद्यालयों के लिए संचालित “बालसंसद” सही मायने में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही है?
बल संसद कि शुरुआत तो विद्यालयों में बड़े जोर-शोर से की गई मगर यह योजना आज विद्यालयों में पूरी तरह से फेल नजर आती है. यह ठीक उसी प्रकार अटखेलियाँ करता हुआ नजर आता है, जैसे भारतीय संसद, लोकतंत्र एवं लोकतान्त्रिक प्रकिया तथा सरकार. हम आज तक संसद एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों को ठीक से समझ नहीं पाए हैं. इसकी वजह भी है, जिस देश की बहुसंख्य आबादी अपने दो-जून के रोटी की तलाश में परेशान हो, वहां यह उम्मीद रखना कि ये लोग संसद, लोकतंत्र एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों तथा संसदीय कार्य प्रणाली से अवगत हों, महज बेमानी है.
देश के ‘युवा’ संसद, लोकतंत्र एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों तथा संसदीय कार्य प्रणाली को जरुर समझते हैं. परन्तु आज के युवा इन मूल्यों को लोगों तक ले जाने के लिए संवेदनशील नहीं दिखते. क्योंकि आज के युवा बाजारवाद एवं कैरियरवाद में घिरे हुए हैं एवं खुद अपने करियर से बाहर न देख पा रहे हैं और न ही समझ पा रहे हैं.
शादान और वेदांत
ऐसे में बिहार के दो युवा ‘शादान अरफी’ (किशनगंज) एवं वेदांत मिश्रा (गोपालगंज) ने गाँधी फेलोशिप में आने के बाद सरकार द्वारा विद्यालयों में चलाई जा रही “बालसंसद” योजना को BSLDP (बालसंसद लीडरशिप डेवलपमेंट प्रोग्राम) के तहत सशक्त एवं सम्पूर्ण बनाने का बीड़ा उठाया है.
ये दोनों राजस्थान के दो जिलों चुरू एवं डूंगरपुर के विभिन्न गाँव में कार्य कर रहे हैं. इनके कार्यों को देखने का अवसर मुझे तब मिला जब मैं नव वर्ष 2017 कि शुरुआत के साथ-साथ महान समाज सेवी सावित्री बाई फुले एवं आदिवासियों के अधिकारों के लिए कम करने वाले जयपाल सिंह मुंडा के जन्मदिन के अवसर मैं डूंगरपुर राजस्थान के एक रिमोट गाँव गुंदीकुआँ (बिच्छिवाडा ब्लॉक) गया. यहाँ इन दोनों के कार्यों एवं समर्पण को देखकर आत्मसंतोष के साथ-साथ सकारात्मक उर्जा का संचार हुआ.
करियर के पीछ भागने की होड़
कभी युवा जो कभी क्रांति एवं समाज को सही दिशा देने के के लिए जाने थे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को सफल बनाने से आपातकाल तक की परिस्थियों से निपटने तक में युवाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है. परन्तु आज वही युवा उदासीन नजर आते हैं, बंटे हुए हैं जाति एवं क्षेत्र के नाम पर. जबकि जरुरत है आत्मनिर्भर बनाने एवं आने वाली पीढ़ी के लिए रास्ता तैयार करने की, गांवों को सशक्त बनाने की, खास कर रिमोट एरिया के गाँवों को. सिर्फ विचारधाराओं के चंगुल में फंस कर किसी संस्थान, विद्यालय या विश्वविद्यालय की चारदीवारी के अन्दर नारेबाजी करने से हमारी न तस्वीर बदलेगी न तस्वीर, अगर कुछ सकारात्मक एवं रचनात्मक होगा तो वेदांत, शादान एवं इनके जैसे हजारों युवाओं के प्रयास से जो सच में युवा होने का फर्ज अदा कर रहे हैं, अपने रचनात्मक एवं सकारात्मक प्रयासों से. गांवों में आज भी सकारात्मक स्थिति है. ग्रामीण देश को सही एवं सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ते देखना चाहते हैं. जरुरत है उन्हें सही दिशा दिखाने की उनके लिए कुछ करने एवं उनके कंधे से कन्धा मिला कर चलने की.
पिछड़े गांवों में शिक्षा का प्रसार करने कि वेदांत, शादान एवं इनके जैसे हजारों युवा इस काम लगे हुए हैं. बालसंसद को सशक्त एवं प्रभावी बनाने का इनका प्रयास निश्चय ही ग्रामीणों को एवं ग्रामीण बच्चों को सही रास्ता प्रसस्त करेगा, उनमें नेतृत्व क्षमता,आंतरप्रन्योरल थिंकिंग उत्पन्न करेगा तथा बालसंसद को विद्यालयों से बाहर निकालकर समुदाय से जोड़ेगा जो आने वाले समय में मजबूत लोकतंत्र की बुनियाद बनेगा और सक्षम नागरिकों का निर्माण करेगा|
इस प्रयास हेतु गांधी फेलो वेदान्त मिश्रा और शादान अरफी सहित तमाम युवाओं को शुभकामनाएं जो लग्जरी जिंदगी का त्याग कर गाँव-गाँव भ्रमण करते हुए एक सशक्त समाज निर्माण का सपना संजो रहे हैं| ऐसे में आपको और हमें इस मुहीम में शामिल होना चाहिए तथा वेदान्त और शादान जैसे युवाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए|
लेखक गुजरात केन्द्रीय विश्विद्यालय में शोधार्थी हैं