प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पदभार संभालने के बाद पार्टी नेताओं से कहा था कि चरण स्पर्श व परिक्रमा बंद कीजिए और काम जुट जाइए। लेकिन यह छूत की बीमारी की तरह है, इसे खत्म का जितना प्रयास करते हैं, वह उतनी ही बढ़ती जाती है। पार्टी नेताओं के यहां लगने वाली कार्यकर्ताओं की भीड़ व मजमा का कार्य व्यवहार एक ही दिखता है और वह है चरण स्पर्श। नेताओं का चरण स्पर्श कार्यकर्ताओं को संतोष देता है, जैसे आप ब्लॉक में चपरासी या क्लर्क को सौ-दो सौ रुपये देकर संतुष्ट हो जाते हैं कि अब काम की गारंटी हो गयी।
वीरेंद्र यादव
भीड़ या मजमा नेताओं के लिए जरूरी है। जितना बड़ा मजमा, उतना बड़ा नेता। मजमा न हो तो मजा किरकिरा। राज्य का सबसे बड़ा मजमा मुख्यमंत्री के जनता दरबार में लगता है। शुरुआत नीतीश कुमार ने की थी। यह छूत की बीमारी की तरह फैली और फैशन में तब्दील हो गयी। मुख्यमंत्री से मुखिया तक का दरबार लगने लगा। एक समय में सुशील मोदी का मजमा भी महत्वपूर्ण होता था। वजह उपमुख्यमंत्री थे। लेकिन जब वह सत्ता से बाहर आए तो मजमा बंद हो गया। लेकिन सत्ता में होने का भ्रम उन्हें सालता रहा। इस कारण उन्होंने फिर मजमे की शुरुआत की। लेकिन यह मजमा कभी नियमित नहीं हो पाया।
यह मजमा लालू यादव, रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, शिवानंद तिवारी, नंदकिशोर यादव, वशिष्ट नारायण सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी, मंगल पांडेय सबके समक्ष लगता है। हर मजमा की अपनी विशेषता है। कहीं झकास कुरता-पैजामा वाले पहुंचते हैं तो कहीं बिना क्रिज के मैले कपड़े वाले लोग भी पहुंचते हैं। इस प्रकार के मजमे में दो प्रकार की समानता नजर आती है। पहला है हर कार्यकर्ता चरण स्पर्श का सत्ता का भ्रम पालता है और दूसरा जिस जाति के नेता, उसी जाति के अधिकतर कार्यकर्ता। कुछ लोग पार्टी के नाम पर भी जुटते हैं। कुछ काम के लिए जुटते हैं तो कुछ बेकाम के भी या दर्शनार्थ।
सोमवार को हम एक बड़े बन रहे नेता के घर पर पहुंचे। भीड़ कमरों की क्षमता से अधिक। कुछ लोग बाहर खड़े थे तो कुछ लोग अंदर ही खड़े होकर नेताजी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस भीड़ का हिस्सा हम भी थे। बस एक नेताजी की कुर्सी खाली थी। वह अपने आसन पर विराजमान हुए। कार्यकर्ताओं के मिलने का सिलसिला शुरू हुआ। बारी-बारी से लोग आ रहे थे। बायें हाथ में आवेदन थामे लोग दांये हाथ से नेता जी का पांव छू कर आशीर्वाद ले रहे थे। नेता जी बातें सुन रहे थे और आवश्यक कार्रवाई भी कर रहे थे। परीक्षा में चुटका के तरह आवेदन को कॉपी में लगा रहे थे। हर आदमी को काम का भरोसा था।
वहां बैठे-बैठे हम सोचते रहे थे कि आप इस जी के यहां हों, उस जी के यहां, माहौल में कोई अंतर नहीं। नेता बदल जाते हैं, कार्यकर्ता बदल जाते हैं। जगह बदल जाती है, पार्टी बदल जाती है। नहीं बदलता है तो भीड़ का व्यवहार। सत्ता का चरण स्पर्श कर वह एक संतोष का अहसास करता है, सुख की अनुभूति करता है कि वह अपनी बात से नेताजी को संतुष्ट कर दिया है। काम हो जाने का भरोसा बढ़ जाता है। यह कैसे विडंबना है कि देश का प्रधानमंत्री चरण संस्कृति बदलने का आग्रह करता है और देश का आम नेता चरण स्पर्श को सफलता की कुंजी समझता है।