साहित्य में विरोध पहले भी होते रहे हैं। कोई विरोध कैसा होगा, यह कहना मुश्किल है। प्रत्येक विरोध की अपनी दिशा और लक्ष्य होते हैं।
तबस्सुम फातिमा
कुल्बर्गी, पांसरे, दाभोल्कर और दादरी से बढ़ती कटरता और असहिष्णुता के विरुद्ध साहित्यकारों ने मंच संभाला तो आखिर साहित्य अकादमी को भी झुकना पड़ा।
फासीवादी छदम साहित्यकारों ने भी साहित्यक विरोध को असफल करने की कोशिश की, मगर भाजपाई मानसिकता के साहित्यकार तो पहले ही खुलकर सामने आचुके हैं। साहित्य में राजनीति और साम्प्रदायिकता हो तो उसे साहित्य नहीं कहा जा सकता।
मंडी हाउस में फासीवादी विचारों के समर्थक साहित्यकार अपने बैनर लिए सरकार की चाटुकारिता में घिरे रहे, लेकिन एक वास्तविकता यह है कि पाठक साहित्य और साहित्य की मुख्य धारा से अलग बिकने वाले साहित्य को खूब पहचानते हैं।
साहित्यकारों की एकता ने देश को कितना झुकाया, इसका आकलन जरूरी नहीं। जरूरी यह कि साहित्यकारों ने अपने दायीत्व को समझा। एक समय होता है, जब लेखक को सत्ता और तानाशाही के विरोध में उठ खड़ा होना होता है। 18 महीनों में जब सत्ताधारी पार्टी की शाखायें और सनातनधर्मी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करते हुए देश को फासीवाद की ओर ढ़केलने आ गये तो साहित्यकारों की खामोशी ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी।
दर्जनों मिसालें सम्मान वापसी के
इतिहास गवाह है कि विरोध के ये तरीके कोई पहली बार सामने नहीं आए। 1964 में ज़ांपाल सार्तरे ने नॉबल पुरस्कार लौटा कर दुनिया को चौंका दिया था। सार्तरे ने अपने पत्र में लिखा, वेनजयूला के क्रांतिकारियों के साथ खुद को जोड़ कर मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं किसी तरह के पुरस्कार न लूं।
अलजेरिया के फरीडम मूवमेंट के समय यदि मुझे यह पुरस्कार दिया जाता तो शायद मैं इसे स्वीकार करने के बारे में सोचता। रूस में सामनती और पूंजीवाद के खिलाफ गोगोल, तालस्ताय, दोस्तोविस्की ने आवाज उठाई। इंग्लैंड में रस्किन और कारलाईल ने मशीनों के खिलाफ आवाज बुलंद की। क्रांति से पहले फ्रांस और रूस के साहित्यकार भ्रष्टाचार और सिस्टम के खिलाफ खुलकर सामने आए। फासीवाद के खिलाफ इकबाल ने भी आवाज उठाई। वर्ग संघर्ष को लेकर प्रेमचंद सामने आए। सिख दंगों के विरोध में खुशवंत सिंह ने पदमभूषण लौटाया। आपातकाल के विरोध में फणीश्वरनाथ रेणू ने पदमश्री का सम्मान वापस किया। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने जलिंयावाला नरसंहार के खिलाफ नाइट हुड का खिताब ब्रिटिश शासकों को लौटा दिया।
सम्मान वापसी का यह विरोध ऐसे अवसर पर हो रहा है, जब हिंदू राष्ट्र की जल्दबाजी में मोदी सरकार ने धर्मनिरपेक्ष, उदार, लोकतांत्रिक आवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया है। एफटीआई से चिल्ड्रेन फिल्म सोसाईटी तक, पाठ्यक्रम की पुस्तकों में भगवा फर्जी इतिहास लिखने तक से वह सब कुछ अंजाम दिया जा रहा है, जो फासीवाद की हैसियत को मजबूत करते हैं। नए हिंदू राष्ट्र के लिए सारी दुनिया में अपनी जगह बनाना जरूरी है। और इसलिए मोदी ने आरएसएस और अपने निरंकुश साथियों को हवा देकर, विदेश जाकर भारत को एक महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का सिलसिला आरम्भ किया।
फासीवाद का रास्ता हिंसा से होकर जाता है। गुलामी के दिनों में जब तक भारतियोंं ने हिंसा का प्रदर्शन किया, अंग्रेज़ खंुश होते रहे। जब गांधी जी अहिंसा का प्रतीकात्मक संदेश लेकर आये, अंग्रेज़ों के होश उड़ गए। देश की ताजा स्थिति को लेकर जब देश के लेखकों ने चुपचाप पुरस्कार वापसी का प्रतीकात्मक ढंग अपनाया तो आरएसएस और मोदी सरकार के भी होश फाख्ता हो गए। क्योंकि सरकार शब्दों की मौन शक्ति से परिचित है। यही एक रास्ता था जहां मानव अधिकार और वैश्विक दबाव को बना कर बड़े षडयंत्र को विश्व के सामने उजागर किया जा सकता था।
22 अक्टूबर नागपुर की बैठक में मोहन भागवत ने इशारों इशारों में अपने दिल की बात कह दी कि अब वह अपने मिशन के करीब हैं। फरीदाबाद में दलित परिवार को जिंदा जला दिया जाता है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट में मोहम्मद अख्लाक की मौत को सुनियोजित साजिश करार दिया जाता है। ऐसी प्रत्येक उपलब्धि को जायज कहते हुए भाजपा, शिवसेना, आरएसएस, देशभक्ति की दौड़ में एक दूसरे से बाजी ले जाने की तैयारी कर रही हैं।
ये सोचना होगा कि देशभक्ति की परिभाषा क्या है और ये देश कहां जा रहा है? आरएसएस अपने मिशन द्वारा दलितों और मुसलमानों का सफ़ाया करना चाहती है तो हम कब तक आंखें बंद किए इन खूनी नज़ारों को देखेंगे? देश में इस समय संविधान और कानून की धज्जियां उड़ चुकी हैं। इन परिस्थितियों में भारत के 40 से ज्यादा लेखकों ने सम्मान वापसी का जो प्रतीकात्मक योगदान किया है, उसकी शक्ति से सरकार परिचित है। अहिंसा के इन्हीं मार्गों से भारत गुलामी से आज़ाद हुआ था और इन्हीं रास्तों से हम फासीवादी ताकतों को दूर भगाएंगे।