75 वां जन्मदिन, आज लालू होने का मतलब क्या है
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद आज 75 वर्ष के हो गए। बधाइयों का तांता लगा। कहीं भोज, कहीं रक्तदान शिविर, लेकिन आज की खास स्थिति में लालू होने का मतलब क्या है?
कुमार अनिल
आज लालू प्रसाद 75 वर्ष के हो गए। पिछले 50 वर्ष से वे राजनीति में हैं। कई उतार-चढ़ाव देखे। सवाल है आज की खास स्थिति में लालू होने का क्या अर्थ है? लालू प्रसाद के राजनीतिक व्यक्तित्व को चार हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला, जब उन्होंने 1974 में महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा में सुधार आदि के मुद्दों पर युवा आंदोलन का नेतृत्व किया। यही आंदोलन आगे चल कर लोकतंत्र बचाओ आंदोलन बन गया। फिर 80 के दशक में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का आंदोलन। पिछड़ों के हक की लड़ाई। तीसरा पड़ाव जब वे राज्य के मुख्यमंत्री बने और सामाजिक न्याय का नारा दिया। गरीब-दलित-पिछड़े खुल कर बोलने लगे। सभाओं-रैलियों में अपनी ताकत दिखाने लगे। इसके बाद तो विधानसभा का चरित्र भी बदला। पिछड़ों-अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़ा। ठीक इसी बीच लाल कृष्ण आडवाणी ने मंदिर आंदोलन शुरू किया। देश में सांप्रदायिक विभाजन गहरी होने लगी। उग्र नारे लगने लगे। तब इस अभियान के नेता आडवाणी को लालू प्रसाद ने गिरफ्तार कर लिया। जो काम कांग्रेसी मुख्यमंत्री नहीं कर सके, वह काम लालू प्रसाद ने किया। सांप्रदायिकता के खिलाफ संसद में दिए गए इनके भाषण आज भी सुने जाते हैं। विरोधी तक मानते हैं कि उन्होंने कभी भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के सामने घुटने नहीं टेके। अगर भाजपा से हाथ मिला लिया होता, तो शायद उनपर मुकदमे भी खत्म हो गए होते।
हाल में जब देश में लाउडस्पीकर के नाम पर मस्जिदों के सामने गाली-गलौज किया जा रहा था, तब जेल से निकलते हुए लालू प्रसाद ने कहा कि जयश्री राम करना है तो मंदिर में जाओ, मस्जिद के सामने जाकर नारा क्यों लगाते हो। पिर उन्होंने कहा कि ये लोग देश को सांप्रदायिक आग में झोंकना चाहते हैं। लालू प्रसाद के इस प्रकार साफ-साफ बोलने की देश में सराहना भी हुई।
लालू होना हर किसी के वश की बात नहीं। लालू तो लालू ही हो सकते हैं। जरूर वे 75 वर्ष के हो गए हैं, लेकिन उनके विचारों में वही दृढ़ता, वही तेवर कायम है। आज भी देश के विपक्षी दलों में उनकी प्रतिष्ठा है। शरद पवार 82 साल के हो गए हैं और आज भी सक्रिय हैं। हालांकि उनकी सक्रियता महाराष्ट्र की राजनीति तक सीमित है। लालू प्रसाद तो अभी 75 वर्ष के ही हैं।
आज जिस प्रकार देश में सांप्रदायिकता का विष फैला है, वैसा विष आजाद भारत में कभी नहीं दिखा। धर्म के नाम पर हिंसा-नफरत के कारण न सिर्फ देश में भयानक स्थिति है, बल्कि पूरे खाड़ी के देशों से रिश्ते भी कमजोर हुए हैं। क्या लालू एक बार फिर संकट की घड़ी में नायक की भूमिका में दिखेंगे?
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